________________ (350) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध फिर सुबह के समय नगर को सजा कर बड़े आडम्बर से प्रभु को वन्दन करने गये। इतने में भगवान तो अप्रतिबंध विहारी होने के कारण बाहुबली के वहाँ पहुँचने के पहले ही विहार कर अन्यत्र चले गये। इससे बाहुबली को भगवान दिखाई नहीं दिये। उन्हें बहुत खेद हुआ और उन्होंने अपने कानों में उँगलियाँ रख कर उच्च स्वर से रुदन किया तथा प्रभु के भूमि पर रहे हुए पदचिह्नों के पास खड़े रह कर जोर-जोर से पुकार की। 'हे बाबा आदम! हे बाबा आदम! कहते हुए बाँग दी। इससे बाँग देने की प्रथा शुरु हुई। आज भी मुसलमान और बोहरा लोग बाँग देते हैं। फिर भगवान की भक्ति के लिए जहाँ प्रभु काउस्सग्ग में खड़े थे, उस स्थान पर आठ योजन विस्तार वाला और एक योजन ऊँचा, हजार कोने वाला और हजार सीढ़ियोंवाला धर्मचक्र नामक एक पीठ बँधवाया- स्तूप कराया। उस पर भगवान के चरण स्थापन किये और मान लिया कि ये ही भगवान हैं। फिर ऐसी बुद्धि से उन्हें नमस्कार किया। अन्य लोगों ने भी वैसी ही महिमा की। फिर वह धर्मचक्रतीर्थ के रूप में प्रसिद्ध हुआ। तब से बाहुबलीकृत पीठ की महिमा बढ़ी। भरत के प्रति मरुदेवी माता का उपालंभ __ जिस दिन से भगवान दीक्षा ले कर विहार कर गये, उस दिन से मरुदेवी माता भरत महाराज को उपालंभ देती रहती थी। वह कहती कि हे * भरत! जैसे कोई कमलपुष्प की माला को फेंक देता है, वैसे ऋषभ मुझे छोड़ कर चला गया है। वह एकाकी वनवासी हो गया है। वह भूख-प्यास से पीड़ित होता होगा, कहीं स्मशान अथवा गुफा में तपस्या करता होगा, सर्दी-गर्मी सहन करता होगा, वर्षाकाल में भीगता होगा और उसे डांसमच्छर काटते होंगे। अरे! मैं पापिनी हूँ, जो पुत्र को इतना दुःख होता है, सो सुनती हूँ। मैं मर क्यों नहीं जाती? मुझ जैसी दुःखिनी कहीं भी कोई नहीं होगी। अरे भरत! तू तो राज्य के सुख में लीन हो गया है। मेरे पुत्र की खबर