________________ (353) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध आँखें हाथ से मलने लगीं। इससे पडल दूर हो गये और उन्होंने समवसरण के दर्शन किये। वहाँ अनेक देव-देवियों को देख कर उन्होंने मन में विचार किया कि देखो तो सही, यह मोह की विकलता कैसी है। मैं तो ऐसा जानती थी कि मेरा पुत्र दुःखी है, पर यह तो बहुत ही सुख में मस्त है। मैं तो रो रो कर अंधी हो गयी, मेरी आँखों पर पडल आ गये, पर इसने तो मुझे याद तक नहीं किया। ऋषभ ऋषभ करते. मेरी तो जीभ सूख गयी। मैं भरत को हमेशा उपालंभ देती थी कि मेरा पुत्र भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी तथा बरसात आदि की पीड़ा सहन करता है तथा उपानह (पगरखी) और वाहनरहित अकेला पहाड़, वन तथा अटवियों में भ्रमण करता है, उसे तु मना कर ले आ और यह तो मेरे दुःख को कुछ भी नहीं जानता तथा मुझसे सुखवार्ता भी नहीं पूछता। यह यहाँ आया तो सही, पर इसने मुझे संदेश तक नहीं भेजा। धिक्कार है ऐसे मोह.को! तो अब मुझे भी पुत्र से क्या काम है? मैं कौन और यह पुत्र कौन? संसार में कोई किसी का नहीं है। सब स्वार्थी हैं। अरे! मेरे पुत्र ने मुझे इतना भी नहीं बताया कि मैं सुखी हूँ, मेरी चिन्ता मत करना। पर यह क्यों कहे? यह तो निरागी है। इसे किसी पर राग रहा नहीं है, पर मैं तो सरागी हूँ, इसलिए मुझे ऐसे विकल्प हों, तो इसमें कोई सन्देह नहीं है। तो अब मुझे भी ऐसे निरागी के साथ क्या प्रतिबंध रखना है? इस इकतरफा स्नेह को धिक्कार हो। इत्यादिक चिन्तवन कर के सब पदार्थों से ममत्वरहित हो कर श्री मरुदेवी माता ने शुभध्यान में अन्यत्व भावना भाते हुए केवलज्ञान प्राप्त किया और अन्तकृत् केवली हो कर उसी समय में श्री ऋषभदेव प्रभु से पहले मोक्ष प्राप्त किया। कवीश्वर कहते हैं कि पुत्रो युगादीशसमो न विश्वे, भ्रान्त्वा क्षितौ येन शरत्सहस्रम्। यदर्जितं केवलरत्नमग्रं, स्नेहात्तदेवार्पित मातुराहुः।।१।। मरुदेवीसमा नास्ति,याऽगात्पूर्वं किलेक्षितुम्। मुक्तिकन्यां तनुजार्थं, शिवमार्गमपि स्फुटम्।।२।। श्री युगादिदेव के समान पुत्र विश्व में अन्य कोई हुआ नहीं है और