________________ (348) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध से हुआ। प्रभु के साथ श्रेयांसकुमार का आठ भव का संबंध श्रेयांसकुमार से लोगों ने पूछा कि हम तो यह जानते नहीं थे कि भगवान आहार लेंगे, फिर तुमने यह कैसे जान लिया? तब श्रेयांसकुमार ने कहा कि मैं भगवान के जीव के साथ आठ भव तक रहा हुआ हूँ। इस कारण से दान देने की सब विधि जानता हूँ। फिर लोगों ने पूछा कि वे आठ भव कौन-कौन से हैं? तब श्रेयांस ने कहा कि- पहले भव में भगवान का जीव ललितांगदेव था, तब मैं इनकी स्वयंप्रभा नामक देवी था। दूसरे भव में भगवान वज्रधर राजा हुए, उस समय मैं उनकी श्रीमती रानी था। तीसरे भव में हम दोनों युगलिक हुए। चौथे भव में हम दोनों सौधर्म देवलोक में मित्ररूप में देव हुए। पाँचवें भव में प्रभु जीवानन्द वैद्य हुए और मैं उनका मित्र हुआ। छठे भव में अच्युत देवलोक में हम दोनों मित्ररूप में देव बने। सातवें भव में प्रभु वज्रनाभ चक्रवर्ती हुए और मैं उनका सारथी हुआ। उस भव में हम दोनों ने तीर्थंकर के पास दीक्षा ली। आठवें भव में हम दोनों सर्वार्थसिद्ध विमान में देवरूप में उत्पन्न हुए। वहाँ से च्यव कर ये भगवान हुए और मैं इनका प्रपौत्र श्रेयांस हुआ हूँ। यह बात इतने दिन तक मैं जानता नहीं था। पर आज मैंने भगवान को देखा, इससे मुझे जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न हुआ। मैने सातवें भव में दीक्षा का पालन किया था। इससे सब रीति मुझे मालूम हुई और मैंने साधु की मर्यादा से आहार वहोराया। ये महापुरुष हैं। इन्हें धनादिक की कोई आवश्यकता नहीं है। __ यह बात सुन कर सब लोगों ने साधु को आहार देने की विधि जान ली। इस तरह इस अवसर्पिणीकाल में श्रेयांसकुमार से प्रथम सुपात्रदान का प्रारंभ हुआ। प्रभु ने आहारान्तरायकर्म कैसे बाँधा? भगवान को एक वर्ष तक निराहार रहना पड़ा। उन्हें आहार नहीं मिला। यह किस अन्तराय कर्म के उदय से हुआ? सो बताते हैं- भगवान