________________ (344) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध 1. प्रथम तो मैंने इन्द्रादिक देवों के देखते दाहिने अंगूठे से प्रभु को अमृतपान कराया। (याने कि तीर्थंकर की ऐसी मर्यादा है कि वे अपनी माता का तथा अन्य स्त्रियों का स्तनपान नहीं करते। उन्हें जब भूख लगती है, तब वे अपने दाहिने हाथ का अंगूठा चूसते हैं। उस समय तुरन्त उसमें अमृतमय पुद्गल परिणत हो जाते हैं। इससे क्षुधावेदनीय का उपशमन हो जाता है।) 2. वंशस्थापना के अवसर पर मैंने इन्द्र के हाथ से इक्षुदंड ग्रहण कर के स्वामी की इच्छा पूर्ण की। इसलिए वंश-स्थापना में भी मैं अगुआ हुआ। . 3. मैंने ही भरतराजा को तिलक कर के राज्य दे कर छह खंड का अधिपति बनाया। (याने कि राज्य-स्थापना में भी दाहिने हाथ से ही मांगलिक कार्य में तिलक किया जाता है।) 4. भरत की तरह ही मैंने बाहुबली को तक्षशिला नगरी का राज्य दिया। 5. तथा प्रभु के शेष अठानबें पुत्रों को भी इसी तरह मैने राज्य दिये। 6. सुनन्दा और सुमंगला इन दो कन्याओं का भी हस्तमिलाप के अवसर पर दाहिने हाथ से आधार दे कर स्वामी के साथ विवाह कराया। 7. मैंने एक वर्ष तक स्वइच्छित वार्षिकदान दे कर तीन जगत के मनोवांछित पूर्ण किये। (दान भी दाहिने हाथ से ही दिया जाता है।) 8. मैं छत्र, चामर, चक्र, गदा, खड्ग, धनुष्य, अंकुश, वज्र और शंखादिक शुभलक्षणों से विराजमान हो कर सुशोभित हो रहा हूँ। ऐसे सब लक्षण मैं (दाहिना हाथ) धारण करता हूँ। लक्षण देखने वाले लोग भी मेरी रेखाएँ आदिक सब लक्षण देखते हैं। 9. तीर्थयात्रा, पुत्रप्राप्ति, सौभाग्य, यशःकीर्ति की सूचक रेखाओं का धारक भी मैं ही हूँ। (याने कि इन सब भावों को सूचित करने वाली रेखाएँ दाहिने हाथ में हों, तो ही तद्रूप फल की प्राप्ति होती है।) 10. मैं चावल देखने और शोधने में चतुर व्यापारवान हूँ। (याने कि चावल, गोधूम आदिक में से कंकड़प्रमुख ढूंढ निकालने का काम दाहिने हाथ से ही हो सकता है।) 11. भोजन, देवपूजा, परमेश्वर-स्मरण, प्रीतिनिर्माण, बोल तथा कबूलात, दान इत्यादिक अनेक शुभकार्यों में मेरा ही अधिकार है। इसलिए मैं सबसे ऊपर हूँ। बड़े-बड़े कामों में मेरा अधिकार है। फिर इस स्वल्प गन्ने के तुच्छ रस की खातिर मैं नीचे क्यों झुकूँ? तिरासी लाख पूर्व वर्ष तक भगवान के साथ मैंने राज्य-साम्राज्य