________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (343) को कोई महानं लाभ होगा। यह कह कर सब अपने अपने घर गये। फिर मध्याह्न के समय श्री ऋषभदेवजी गोचरी के लिए घर घर घूमने लगे और लोग पूर्वोक्त रीति से उन्हें वस्त्राभरणादिक वस्तु देने लगे, पर भगवान कुछ भी लेते नहीं थे। इससे लोगों में कोलाहल हो रहा था कि भगवान तो कुछ भी लेते नहीं है। इतने में झरोखे में बैठे श्रेयांसकुमार को श्री ऋषभदेव भगवान दिखाई दिये। फिर ईहापोह करते उसे जातिस्मरणज्ञान हुआ। इससे उसने पूर्वभव देख कर जाना कि अहो! मैं तो इन प्रभु का पूर्वभव में सारथी था। तब मैंने भी दीक्षा ली थी। वज्रसेन तीर्थंकर ने यह कहा था कि ये वज्रनाभ राजर्षि भरतक्षेत्र में पहले तीर्थंकर होंगे। वे ही ये प्रभु तीर्थंकर, देवों के देव गोचरी के लिए घूमते दीखते हैं। यह जान कर वह तुरन्त्र झरोखे से नीचे उतर आया। फिर उसने कहा कि हे प्रभो! ये लोग साधु को दान देने की रीति से वाकिफ नहीं है। यह कह कर पाँच अभिगम सम्हाल कर तीन प्रदक्षिणा दे कर "इच्छामि खमासमणो! बंदिउं जावणिज्जाए निसीहिआए मत्थएण वंदामि।" इस तरह खमासमण दे कर फिर "इच्छकारि सहराइ ? सहदेवसि ? सुखतप ? शरीर निराबाध ? सुख संजम जात्रा निर्वहो छो जी? स्वामी शाता है जी? हे भगवन्! भात-पानी का लाभ देने पधारिये। मेरा गृहांगन पावन कीजिये। मेरे घर पधारिये और शद्ध, बयालीस दोषरहित आहार ग्रहण कर मेरा उद्धार कीजिये।" इस तरह कह कर श्रेयांसकुमार प्रथम दानी के रूप में प्रकट हुए। उस समय गन्ने के रस से भरे हुए एक सौ आठ घड़े कोई व्यक्ति श्रेयांसकुमार को भेंट दे गया था। वे शुद्धमान घड़े ले कर श्रेयांसकुमार ने भगवान को भिक्षा ग्रहण करने की विनती की। कवि घटना करता है कि दान लेते समय भगवान के दोनों हाथों में आपस में विवाद हुआ। वह इस प्रकार से कि- पहले दाहिने हाथ ने गद्गद् स्वर से श्रेयांसकुमार से कहा कि अहो श्रेयांस! तुम सुनो। मैं श्री ऋषभदेव का इस जन्म का सेवक हूँ। उनके प्रसाद से मैंने बड़े-बड़े उत्तम कार्य किये हैं और उनके कारण मुझे बहुत प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है। वे मेरे कर्त्तव्य तुम निरपेक्ष रूप से सुनो।