________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (345) चलाया है, तो अब मैं भगवान के आगे रह कर याचना कैसे कराऊँ? इसी कारण से मैंने खाना-पीना, पहनना-ओढ़ना, नाटक देखना आदि सब छुड़वा कर मौन धारण करा कर गहनवन और अटवियों में प्रभु को घुमाया। इसलिए अब मैं यह गन्ने का रस ग्रहण नहीं करूँगा। तुम बायें हाथ से कहो, तो यह माँग लेगा। ___ दाहिने हाथ के वचन सुन कर बायाँ हाथ बोला कि अरे! निर्लज्ज! तू व्यर्थ ही अपने मुँह से अपनी क्या प्रशंसा करता है? अपने मुँह से अपनी बड़ाई करने वाले में यदि कोई गुण हो तो भी उसे लघुता प्राप्त होती है और दूसरों की प्रशंसा करने से यदि कोई निर्गुण होता है, तो भी वह गुणवान बन जाता है। जो गुणवान होता है, उसके गुण तो अपने आप प्रकट हो जाते हैं। जैसे कपूर की सुगंध, रत्न का तेज और मणि की निर्विषता-विषापहारकता इत्यादिक गुण अपने आप प्रकट दिखाई देते हैं। वे किसी से कहने नहीं जाते। तथा साथ-साथ रहने वाले दो जनों में से कोई एक उठ कर अपने गुण दूसरे के आगे कह कर बताये, यह योग्य नहीं है। जैसे माता के आगे मामा के गुणों का वर्णन करना योग्य नहीं कहलाता, उसके अनुसार यह भी जान लेना। इसलिए अहो! श्री श्रेयांस! श्री ऋषभदेव के प्रपौत्र! मेरा कर्त्तव्य भी अब तुम सुनो 1. परमेश्वर ने जिन दो कन्याओं के साथ विवाह करना मंजूर किया, उन्हें सोने-बैठने का स्थान तो मैंने ही दिया है। क्योंकि स्त्रियाँ पुरुष के बायीं ओर सोतीबैठती हैं। याने कि दाहिने हाथ ने तो मात्र स्त्री का हाथ पकड़ कर उसे उठा दिया, पर उन्हें बैठने के लिए स्थान तो मैंने ही दिया। 2. मैं युद्ध के मैदान में ढाल आगे रख कर स्वामी की रक्षा करता हूँ और दाहिना हाथ तो तलवार उठा कर पुनः भाग जाता है। ..3. युद्ध के दौरान मैं धनुष्य धारण कर के आगे खड़ा रहता हूँ और यह दाहिना हाथ तो तीर ले कर चुगलखोर की तरह कान के पास चला जाता है। 4. अंक गिनती का व्यापार भी मेरी ओर ही होता है। याने कि अंकों की वामगति होती है। 5. ग्रामान्तर के लिए प्रयाण करते समय गधा भी यदि मेरी दिशा की तरफ आ कर रेंकता है, तो वह सिद्धिदायक माना जाता है। 6. इसी प्रकार देवचिड़िया भी बायीं ओर आ कर बोले, तो शुभफल सूचित करने वाली होती है। 7. प्रथम प्रयाण में रात्रि के प्रथम प्रहर में सियार भी मेरी दिशा में रहते हए