________________ (328) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध दबाते थे तथा पीठ और महापीठ एकांत में तप-जप-सज्झाय और ध्यान करते थे। ___अब बाहु और सुबाहु की गुरुप्रमुख सब प्रशंसा करते थे। इससे पीठ और महापीठ सोचने लगे कि देखो ! काम सबको वल्लभ है। ये साधु हुए हैं, तो भी मतलबी दीखते हैं। हम दोनों सज्झाय-ध्यान करते हैं, पर हमारी कोई प्रशंसा नहीं करता। बाहु-सुबाहु इनकी चाकरी करते हैं, तो उनकी प्रशंसा सब करते हैं। इसलिए संसार में सब स्वार्थी हैं। .. फिर वज्रनाभ मुनि ने बीसस्थानकतप कर के तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन किया। बाहुमुनि ने आहारदान से भोगफल उपार्जन किया। सुबाहुमुनि ने पगचंपी के प्रभाव से बाहुबल उपार्जन किया तथा पीठ और महापीठ ने ईर्ष्या करने से स्रीवेद बाँधा। छठा अनामिका का जीव भविष्य में श्रेयांसकुमार होगा। ये छहों जन अन्त में अनशन कर के देहत्याग कर बारहवें भव में सर्वार्थसिद्धविमान में देवरूप में उत्पन्न हुए। फिर तैंतीस सागरोपम की आयु पूर्ण कर के सर्वार्थसिद्ध विमान से च्यव कर तेरहवें भव में वज्रनाभ का जीव श्री ऋषभदेवजी हुआ, बाहु का जीव भरत चक्रवर्ती हुआ, सुबाहु का जीव बाहुबल तथा पीठ और महापीठ के जीव ब्राह्मी तथा सुन्दरी हुए। ये पाँचों जीव अनुक्रम से मोक्ष जायेंगे। प्रभु ऋषभदेव का मरुदेवी की कुक्षि में अवतरण उस काल में उस समय में श्री ऋषभदेव अरिहंत का ग्रीष्म का चौथा महीना सातवाँ पखवाड़ा आषाढ़ वदि चौथ के दिन सर्वार्थसिद्ध विमान से देव का आयुष्य पूर्ण होने पर च्यवन हुआ। वे इस जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में इक्ष्वाकुभूमि में नाभि कुलकर की मरुदेवी भार्या की कोख में मध्यरात्रि के समय देवसंबंधित आहार, भव और शरीर का त्याग कर के गर्भ में पुत्ररूप में उत्पन्न हुए। इक्ष्वाकुवंश में उत्पन्न हुए, इस कारण से इक्ष्वाकुभूमि हुई। पूर्व में सब युगलिक थे। नगर आदि नहीं थे। युगलिकों में कल्पवृक्ष ही मनोरथ पूर्ण करते थे। उनमें सात कुलकर हुए।