________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (253) करता याने चलता भी नहीं (संसरति वा) और कर्मादि बंधन से छूटता भी नहीं (न मुच्यते।) इस अर्थ से तुम यह जानते हो कि जीव के बंध-मोक्ष नहीं है। परन्तु ऐसा नहीं जानना। यह वेदपद सिद्धजीव के वर्णन का है, क्योंकि सिद्ध के जीवों के बंध-मोक्ष नहीं है, पर जो रागादि युक्त संसारी जीव हैं, उनके तो बन्ध और मोक्ष दोनों हैं। ___ यह सुन कर संशय दूर कर उन्होंने भी दीक्षा ली। 7. श्री मौर्यपुत्र गणधर फिर सातवें मौर्यपुत्र आये। प्रभु ने उनसे कहा कि हे मौर्यपुत्र ! तुम्हें देव हैं या नहीं? यह सन्देह है। तुम जिस वेदपद का अर्थ बराबर नहीं समझे, वह इस प्रकार है- मायोपमान इन्द्रयमवरुणकुबेरादि। अर्थात् इन्द्र, यम, वरुण, कुबेरादिक मायोपमान हैं। इससे तुम्हें यह सन्देह है कि देवादि सब मायारूप हैं, परन्तु वास्तविक नहीं है। ऐसा तुम जानते हो। पर इन्हें जो मायारूप कहा है, वह अनित्यता बताने के लिए कहा है और वेद में यह भी कहा है कि- स एष यज्ञायुधी यजमानोऽञ्जसा स्वर्गलोकं गच्छति। अर्थात् यज्ञरूप आयुध है जिसका, वह यज्ञ करने वाला यजमान तत्काल सीधे स्वर्ग याने देवलोक में जाता है। इस वेदपद से देवलोक है, यह सिद्ध होता है। वेदपद का यह अर्थ सुन कर मौर्यपुत्र का सन्देह दूर हुआ और उन्होंने दीक्षा ली। 8. श्री अकंपित गणधर अब आठवें अकंपित आये।स्वामी ने उनसे कहा कि हे अकंपित तुम्हें 'नारकी हैं या नहीं?' यह सन्देह है और यह सन्देह वेदपद के अर्थ का रहस्य न जानने के कारण है। 'नेह वै प्रेत्य नरके नारकास्सन्ति' - इस वेदपद का अर्थ तुम ऐसा जानते हो कि परलोक में नारकी नहीं हैं, परन्तु तुम्हारा यह अर्थ गलत है। सही अर्थ इस प्रकार है- नेह याने नहीं यहाँ, प्रेत्य याने परलोक में, नरके याने नरक में शाश्वत नारका याने नरक के जीव, वै याने निश्चय अर्थात् नारकी के जीव शाश्वत नहीं हैं ऐसा जानना, पर नारकी नहीं है ऐसा नहीं जानना। क्योंकि- नारको वै एष जायते यः शूद्रानं अश्नाति याने जो शूद्र का अन्न खाता है, वह नारकी होता है। इस वेदपद से नारकी हैं, यह सिद्ध होता है। ___ यह सुन कर निःसन्देह हो कर अकंपित ने भी दीक्षा ली।