________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (251) और फिर वेद के कुछ पद ऐसे भी हैं- 'पुण्यः पुण्येन पापः पापेन।' इस पर से कर्म है, ऐसा भी दीखता है। फिर कर्म है या नहीं? यह तुम्हारा सन्देह है। पर हे अग्निभूति ! वेद के ये पद आत्मस्तुति के हैं। कर्म का निषेध करने वाले नहीं है। क्योंकि अमूर्त होते हुए भी उसका मूर्तद्रव्य के साथ संयोग प्रत्यक्ष दीखता है। अमूर्त आकाश और मूर्त बादलों का परस्पर योग होता है। जो मूर्त है, वह अमूर्त को सुख-दुःख देता है। जैसे मदिरापान करने वाले को मदिरा के कारण अचेत अवस्था प्राप्त होती है। मदिरा मूर्तिवन्त है, पर अमूर्त जीव को बेचैन बनाती है। इसलिए कर्म है, यह सिद्ध होता है। और लोक में भी एक भाग्यवान, एक अभागाः, एक सुन्दर, एक कुरूप, एक धनवान, एक दरिद्री ये सब शुभाशुभ कर्म के बिना संभव कैसे हो सकते हैं? इस तरह वेद में भी कर्मसत्ता सिद्ध है। इससे कर्म अवश्य है। इत्यादिक वेदपद के अर्थ सुन कर अग्निभूति का भी संशय मिट गया। उन्होंने भी अहंकार छोड़ कर भावसहित पाँच सौ छात्रों के साथ दीक्षा ग्रहण की। 3. श्री वायुभूति गणधर फिर तीसरे भाई वायुभूति ने अग्निभूति की दीक्षा की बात सुनी। वे सोचने लगे कि मेरे दो भाइयों ने उस सर्वज्ञ के पास दीक्षा ली है, तो अवश्य ही वह कोई महात्मा पुरुषोत्तम है। इसलिए मैं भी उसको वन्दन करूँ, पूजूं और संशय पूछ कर पापरहित होऊँ। यह सोच कर वे भी भगवान के पास आये। भगवान ने उन्हें भी पूर्वोक्ति रीति से बुलाया और कहा कि हे वायुभूति ! तुम्हें यह संशय है कि जीव सो ही शरीर याने जीव और शरीर ये दोनों एक हैं या नहीं है? वेदपद का अर्थ बराबर न समझने के कारण तुम्हें यह संशय है। वह वेदपद इस प्रकार है- विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय... इत्यादि। - इस पद से जीवसत्ता सिद्ध है। जीव है तो इस जीव का भोग्य जो शरीर है, वह जीव से भिन्न है तथा 'सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष ब्रह्मचर्येण' इत्यादि वेदपद का अर्थ यह है कि सत्य, तप, ब्रह्मचर्य से संयुत पुरुष यह जानता है कि जीव शरीर से भिन्न है। प्रमाण से भी जीव और शरीर भिन्न दीखते हैं, क्योंकि यह मेरा शरीर है, ऐसा कहा जाता है। जब कोई यह कहता है कि यह मेरा शरीर है, तो यहाँ 'मेरा शरीर है' यह कहने वाला जीव है। इसलिए जीव और शरीर भिन्न हैं। .. यह सुन कर वायुभूति ने भी दीक्षा ली।