________________ (250) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध प्रव्रज्य त्रिपदीं लब्ध्वा, द्वादशाङ्गी स निर्ममे।।१।। श्री वीरप्रभु के मुख से वेदपद का अर्थ जान कर दीक्षा ले कर त्रिपदी प्राप्त कर उन्होंने बारह अंगों की रचना की। 2. श्री अग्निभूति गणधर इन्द्रभूति के दीक्षा लेने की बात जब उनके भाई अग्निभूति ने सुनी, तब उन्होंने सोचा कि कदाचित् अग्नि पानी हो जाये, पाषाण नरम हो जाये, पर्वत हंवा से हिल जाये, सूर्य का उदय पश्चिम दिशा में हो जाये, चन्द्रमा से अंगारे बरसने लगें, पानी अग्निज्वाला बन जाये, अमृतपान से मृत्यु हो जाये, विषभक्षण से जीवनदान मिल जाये, पृथ्वी पाताल में प्रवेश कर दे, मेरुपर्वत चलायमान हो जाये और समुद्र मर्यादा का उल्लंघन कर दे, तो भी मेरा भाई उस ऐन्द्रजालिक से हार नहीं सकता। ऐसी बात कभी हो नहीं सकती। वे यह सोच ही रहे थे कि इतने में समवसरण से कई अन्य लोग गाँव में आये। उनसे जब अग्निभूति ने अपने भाई के समाचार पूछे, तब उन्होंने कहा कि पूछना क्या है? वे तो भगवान के शिष्य बन गये हैं। हमने हमारी आँखों से यह देखा है। यह सुन कर अग्निभूति ने सोचा कि मेरा भाई अत्यन्त समझदार होते हुए भी कैसे फँस गया? शायद दैवेच्छा से फँस गया लगता है। इसलिए अब मुझे वहाँ जा कर उस ऐन्द्रजालिक को जीत कर अपने भाई को छुड़ा लाना चाहिये। इसके साथ ही उस ऐन्द्रजालिक का सर्वज्ञता का बिरुद भी मिटा देना चाहिये। यह सोच कर बिरुदावली बोलने वाले पाँच सौ छात्रों के परिवार से घिरे हुए अग्निभूति अमर्ष सहित वहाँ से निकल पड़े। जब उन्होंने समवसरण की पहली सीढ़ी पर कदम रखा, तब प्रभु ने उन्हें भी पूर्व की तरह नाम-गोत्र सहित बुलाया। फिर उन्होंने कहा कि हे अग्निभूति ! तुम्हें यह संदेह है कि कर्म है या नहीं? वेदपद का अर्थ ठीक से मालूम न होने के कारण तुम्हें यह सन्देह है। वह सन्देह इस प्रकार है 'पुरुष एवेदं सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यं' इत्यादिक वेदपदों से तुम यह जानते हो कि जो जीव है, वही सर्व है। फिर इससे अन्य कर्म भिन्न कैसे हो सकता है? इसलिए कर्म नहीं है। आत्मा तो अमूर्त है, फिर उसे कर्म कैसे लग सकता है? क्योंकि मूर्त और अमूर्त का आपस में संयोग नहीं होता। इसलिए कर्म नहीं है और कर्म से जीव को सुख-दुःख भी कैसे हो सकता है? इस प्रकार इस पद से तुम यह मानते हो कि कर्म नहीं है।