________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (311) में रही। एक बार रथनेमि ने राजीमती से कहा कि नेमजी ने तो तुमसे ब्याह नहीं किया, पर मैं नेमजी का भाई हूँ, इसलिए तुम मेरे साथ ब्याह करो। तब राजीमती ने कहा कि अरे ! वमन किए हुए आहार की तुम क्या इच्छा करते हो? मैं तो श्री नेमीश्वर को छोड़ कर अन्य किसी की चाहना ही नहीं करती। यह सुन कर रथनेमि उदास हो गया। नेमिनाथ की दीक्षा और केवलज्ञान अरिहन्त श्री अरिष्टनेमि तोरणं से पुनः घर लौटे। कुल मिला कर वे तीन सौ वर्ष तक कुमारावस्था में घर में रहे। फिर लोकान्तिक देवों ने आ कर कहा कि हे प्रभो ! धर्म का प्रवर्तन कीजिये। तब नेमिनाथस्वामी ने अवधिज्ञान से अपनी दीक्षा का अवसर जान कर वार्षिकदान देना शुरु किया। फिर प्रभु ने वर्षाकाल का पहला महीना दूसरा पखवाड़ा श्रावण सुदि छठ के दिन पहले प्रहर से पूर्व दिन में अर्थात् मध्याह्न के पहले देवों और मनुष्यों से उठायी गयी उत्तरकुरा नामक पालकी में बैठ कर यावत् द्वारिका नगरी के मध्य से हो कर जहाँ रैवत नामक उद्यान है, वहाँ जा कर अशोकवृक्ष के नीचे पालकी से उतर कर, अपने हाथों से सब अलंकारआभूषण उतार कर पंचमुष्टि लोच कर के छट्ठ भत्त याने पानी रहित चउविहार दो उपवास कर के, चित्रानक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर एक देवदूष्य वस्त्र धारण कर के एक हजार पुरुषों के साथ दीक्षा ली और घर का त्याग कर साधुता का स्वीकार किया। अरिहन्त अरिष्टनेमि ने चौवन रात्रि तक काया को वोसिराया। यावत् पचपनवें दिन की रात्रि में वर्तमान वर्षाकाल का तीसरा महीना पाँचवाँ पखवाड़ा आश्विन वदि अमावस्या के दिन, पिछले प्रहर में गिरनार पर्वत पर वेतस वृक्ष के नीचे पानीरहित अट्ठम तप में प्रभु को चित्रानक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर, शुक्लध्यान ध्याते हुए अनन्त केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न हुआ। वे सब भाव जानने देखने लगे। श्री नेमिनाथस्वामी को गिरनार पर्वत के सहस्राम्रवन में केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। देवों ने समवसरण की रचना की। वनपालक ने जा कर