________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (189) तापसों ने उन पशुओं को वहाँ से भगा दिया, पर भगवान ने किसी भी पशु को घास खाने से नहीं रोका। वे मौन रहे। धीरे-धीरे पशु सब घास खा गये। तब झोंपड़ी को खुला देख कर कुलपति बोला कि हे प्रभो ! पक्षी भी अपने घौंसले की रक्षा करते हैं और आप राजपुत्र हो कर अपना आश्रम भी नहीं सम्हाल सकते? इस तरह कुलपति को अप्रीति हुई जान कर भगवान ने निर्धारित किया कि अब मुझे यहाँ रहना नहीं है। फिर आषाढ़ी पूनम से पन्द्रह दिन बीतने पर श्रावण वदि अमावस्या के दिन भगवान ने वहाँ से विहार किया। तब से यह कहा जाने लगा कि- चल दिये भगवान न गिनें चातुर्मास। भगवान ने वहाँ पाँच अभिग्रह धारण किये। वे इस प्रकार हैं- 1. अप्रीति उत्पन्न हो वहाँ नहीं रहना, 2. जब तक छद्मस्थता है, तब तक निरन्तर काउस्सग्ग में ही रहना, 3. गृहस्थ का विनय न करना, 4. यथासंभव मौन रहना और 5. सर्वदा हाथ में भोजन करना। शूलपाणि यक्ष का उपसर्ग और भगवान के दस स्वप्न ऐसे अभिग्रह सहित विचरते हुए भगवान अस्थिग्राम में शूलपाणि यक्ष के मन्दिर में प्रथम चातुर्मासार्थ पहुँचे। वहाँ अत्यन्त भयंकर उपसर्ग सहन कर के उसे प्रतिबोध दिया। वह कथा इस प्रकार है- धनदेव सार्थवाह पाँच सौ गाड़ियों में माल भर कर व्यापार के लिए किसी ग्रामान्तर में जा रहा था। मार्ग में वर्द्धमान गाँव के पास बहुत वालुकाभरी वेगवती नदी पड़ी। गरमी के दिन होने के कारण कोई भी बैल उस रेतभरी नदी में से गाड़ी खींच न सका। उन बैलों में एक बैल बहुत ताकतवान था। उसने वे पाँच सौ गाड़ियाँ नदी के उस पार पहुँचा दी, पर स्वयं टूट गया। इस कारण से आगे बढ़ न सका।। तब उस सार्थवाह ने उस बैल के घास-चारे की व्यवस्था के लिए वर्द्धमान गाँव के अधिकारी सेठ, पटेल, गामोद, पटवारीप्रमुख पंचों को वह धुरीण बैल सौंपा। उसके घी, गुड़, घास, जल आदि के लिए उन्हें बहुत सा धन दिया। फिर उस बैल की सार-सम्हाल लेने की बहुत भलामन कर वह वहाँ से आगे बढ़ा। बाद में उस गाँव के लोगों ने उस बैल की कोई सार-सम्हाल न ली। सेठ का दिया सब धन