________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (207) तलाश की, पर भगवान नहीं मिले। तब सब उपकरण किसी ब्राह्मण को दे कर क्षुरमुंड हो कर वह वहाँ से निकला। कोल्लाग सन्निवेश में भगवान को देख कर वह बोला कि आपकी दीक्षा मुझे हो। मैं आपका शिष्य हूँ। यह बात भगवान ने भी मान ली।। फिर गोशालक सहित विहार कर भगवान एक दिन स्वर्णखल गाँव की ओर चले। मार्ग में किसी ग्वाले को खीर पकाते देख कर गोशालक बोला कि भगवन् ! यह खीर तैयार होगी, तब इसे खा कर निकलेंगे। थोड़ी देर बैठिये। तब सिद्धार्थ बोला कि यह खीरपात्र फूट जायेगा। फिर गोशालक ने ग्वाले से कहा कि यह हाँडी फूट जायेगी। ग्वाले ने बहुत प्रयत्न किये, तो भी हाँडी फूट गयी। तब गोशालक ने- जो होना होता है, वह होता ही है, ऐसा निर्धार कर हठपूर्वक नियतिवाद का स्वीकार किया। वहाँ से विहार कर भगवान ब्राह्मणगाँव गये। वहाँ एक नंद का और दूसरा उसके भाई उपनन्द का ऐसे दो मोहल्ले थे। भगवान ने नन्द के मोहल्ले में पारणा किया। गोशालक को उपनन्द के घर सात दिन की बासी घाट मिली। इससे कोपायमान हो कर उसने कहा कि मेरे धर्माचार्य के प्रभाव से तेरा घर जल कर भस्म हो जाये। उसके ऐसा कहते ही व्यंतरदेवों ने भगवान का महत्त्व रखने के लिए उसका घर जला डाला। तीसरे चौमासे में दो दो मास की तपस्या से प्रभु चंपानगरी में रहे।।३।। वहाँ से अंतिम पारणा कर के कोल्लाग सन्निवेश गये। वहाँ शून्यगृह में काउस्सग्ग में रहे। वहाँ सिंह राजपूत चौधरी का पुत्र विद्यन्मती दासी के साथ क्रीड़ा कर रहा था। उसे रममाण देख कर गोशालक हँसा। तब उसने गोशालक को मारा-पीटा। फिर गोशालक ने प्रभु से कहा कि यह मुझे मारता है, आप इसे रोकते क्यों नहीं हैं? प्रभु तो मौन थे। इसलिए सिद्धार्थ बोला कि अब आगे से ऐसा हँसी का काम मत करना। ऐसा काम करेगा, तो ऐसा ही फल पायेगा। __इसके बाद प्रभु मोराक सन्निवेश में रमणीय उद्यान में काउस्सग्ग में रहे। वहाँ एक कुम्हारशाला में श्री पार्श्वनाथ के शिष्य मुनिचन्द्रसूरिजी