________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (239) फिर इस ऐन्द्रजालिक की क्या शक्ति है? मैं जब तक प्रमाद में हूँ, तब तक ही यह सर्वज्ञ कहलाता है। पर जब मैं वाद करने के लिए सामने जाऊँगा, तो यह उसी समय भाग जायेगा। कहा भी है कि तावद् गर्जन्ति खद्योतास्तावद् गर्जति चन्द्रमाः। उदिते तु सहस्रांशौ, न खद्योतो न चन्द्रमाः।।१।। जुगनूं का प्रकाश जब तक चन्द्रमा का उदय नहीं होता, तब तक ही रहता है और चन्द्रमा का प्रकाश भी जब तक सूर्य का उदय नहीं होता, तब तक रहता है, पर जब हजार किरणों को धारण करने वाले सूर्य का उदय होता है, तब जुगनूँ और चन्द्रमा इन दोनों का प्रकाश नहीं रहता। __इसी तरह अन्य वादियों को हराने में तो यह ऐन्द्रजालिक समर्थ है, पर मेरे आगे इसका प्रभाव नहीं चलेगा। इसने जब तक मुझे नहीं देखा है, तब तक ही यह अन्य लोगों को भरमा सकता है। अब व्यर्थ घर में बैठ कर अभिमान करना मेरे लिए किस काम का? मैं स्वयं वहाँ जा कर उसका बल-पराक्रम देखें तो सही, कि वह क्या पढ़ा है? अरे मुझे इतने शास्त्र तो 'भले' के पाठ की तरह आते हैं और याद हैं लक्षणे मम दक्षत्वं, साहित्ये संहिता मतिः। तर्केऽकर्कशता नित्यं, क्व शास्त्रे नास्ति मे श्रमः।।१।। . लक्षणशास्त्र में मेरा दक्षत्व है। याने लक्षणशास्त्र में अच्छी तरह जानता हूँ। स्त्री-पुरुषादिकों के बत्तीस लक्षण कुशलतापूर्वक कह सकता हूँ तथा पदार्थ के लक्षणों का तो ऐसे प्रतिपादन करता हूँ कि उसमें अव्याप्तिप्रमुख दोष न रहे। काव्यादिक साहित्यशास्त्र के प्रतिपादन में मैं सदा अस्खलित हूँ। तर्कशास्त्र में मैं इतना निपुण हूँ कि कोई मुझे प्रत्युत्तर नहीं दे सकता। ऐसे कठिन तर्क मैं जानता हूँ। इसलिए तर्कशास्त्र मेरे लिए कठिन नहीं है। वह सदा अकर्कश है। अधिक क्या कहूँ? ऐसा कौनसा शास्त्र है कि जिसमें मेरी गति न हो? अर्थात् अठारह व्याकरण, अगणित कोश, छन्दरत्नाकरादिक अलंकार याने कि काव्य की शोभा अतिशयालंकारादिक, नवरसादिक याने कि