________________ (242) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध तो यह सर्वगुण-सम्पूर्ण सबसे अधिक जो तीर्थंकर कहा जाता है, वह तीर्थंकर है। क्योंकि ऐसे गुण तो तीर्थंकर के अलावा अन्य किसी में होते ही नहीं है। इसलिए समस्त पापहर, सर्वलोक के शिवंकर, षट्काय के रक्षक, अनाथ के नाथ, अशरण-शरण, तरण-तारण ऐसे जो श्री वर्धमान सर्वज्ञ तीर्थंकर कहे जाते हैं, ये वे ही लगते हैं। सूर्य के समान तेजस्वी, चन्द्रमा के समान सौम्य, समुद्र के समान गंभीर ऐसे ये श्री महावीर तीर्थंकर के अलावा और कौन हो सकते हैं? इन्द्रभूति श्री वीरप्रभु को देख कर सोचते हैं किं नन्दी किं मुरारिः किमु रतिरमणः किं नलः किं कुबेरः; .. किं वा विद्याधरोऽसौ किमिह सुरपतिः किं विधुः किं विधाता। नायं नायं न चायं न खलु न हि न वा नापि नासौ न चैव; तीर्थं कर्तुं प्रवृत्तो निजगुण विभवैर्वीर देवाधिदेवः।।१।। क्या ये महादेव हैं? कृष्ण हैं? अत्यन्त रूपवान कामदेव हैं? नलराजा हैं? इन्द्र के भंडारी कुबेर हैं? क्या ये विद्याधर हैं? इन्द्र हैं? चन्द्र हैं? या ये विधाता हैं? इस तरह कल्पनाएँ कर के फिर विचारपूर्वक निर्णय करने लगे कि ये महादेव तो नहीं है, क्योंकि वे तो लंगोटधारी हैं। इनका सुवर्ण जैसा वर्ण है, इसलिए ये कृष्ण भी नहीं हैं। राज-चिह्नों से वर्जित होने के कारण ये नलराजा भी नहीं हैं। ये त्यागी हैं, इसलिए कुबेर भंडारी भी नहीं हैं। ये पादचारी हैं, इसलिए विद्याधर भी नहीं है। भगरहित हैं, इसलिए इन्द्र भी नहीं हैं। कलंकरहित हैं, इसलिए चन्द्र भी नहीं हैं। इसी प्रकार घटना-विवर्जित हैं, इसलिए विधाता भी नहीं हैं। ये तो सबसे अधिक लक्षणवान दीखते हैं। फिर कौन हैं ये? इस प्रकार विचार करते करते उनके ध्यान में आया कि अरे ! ये तो तीर्थस्थापना करने के लिए अपने अतिशयादि गुणरूप धन के द्वारा जो प्रवर्तित हैं ऐसे देवाधिदेव, जिन्हें लोग श्री वीरजिनेन्द्र कहते हैं, वे ये ही हैं। अन्य कोई नहीं हैं, ऐसा लगता है। हा! हा! ये मैंने क्या किया? यहाँ मैं कैसे संकट में फँस गया? इनके आगे मेरा मान कैसे रहेगा?