________________ (224) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध हुई नहीं लगती, ऐसा 'अनन्तबलित्वात्' इस वचन से निर्धार होता है। " फिर वैद्य ने कानों पर व्रणरोहिणी औषधि लगायी। इससे घाव भर गया। समाधि हुई। सेठ और वैद्य दोनों मृत्यु के बाद देवलोक गये। ग्वाला मर कर सातवीं नरक में गया। इस तरह भगवान को यह अंतिम महाउपसर्ग ग्वाले ने किया। जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ऐसे तीन प्रकार के उपसर्ग भगवान को हुए। उसमें प्रत्येक प्रकार के उपसर्गों में सबसे बड़ा उपसर्ग कौनसा हुआ, वह कहते हैं। प्रथम जघन्य उपसर्गों में शीतपरीषह का महाउपसर्ग कटपूतना व्यन्तरी ने किया, मध्यम उपसर्गों में संगमदेव ने महाउपसर्ग किया और उत्कृष्ट उपसर्गों में महाउपसर्ग कान में खीले ठोंके गये तथा निकाले गये सो हुआ। इस तरह बारह वर्ष तक भगवान ने काया को वोसिराया। भगवान जब भी जहाँ जहाँ बैठे, गोदुहासन में बैठे, पर किसी भी दिन धरती पर नहीं बैठे। इन बारह वर्षों में मात्र दो घड़ी शूलपाणि यक्ष के मंदिर में नींद ली। शेष सब काल निद्रारहित बीता। इस तरह श्री वीरप्रभु को बहुत उपसर्ग सहन करने पड़े और श्री ऋषभदेव तीर्थंकर को एक वर्ष तक भिक्षा नहीं मिली, यही इतना ही उपसर्ग हुआ तथा मध्य के बाईस तीर्थंकरों को स्वल्प उपसर्ग हुए हैं। प्रभु की आचार-विचार-दिनचर्या ___भगवान जब आगार याने घर, उससे रहित ऐसे अनगार हुए तब एक चलने की ईयासमिति याने देख कर चलना, दूसरी भाषासमिति याने विचारपूर्वक बोलना, तीसरी एषणासमिति याने दोषरहित आहार लेना, चौथी आदान- भंड-मत्त-निक्खेवणासमिति याने भंडमात्रप्रमुख देखभाल कर जयणा से ग्रहण करना व जयणा से रखना और पाँचवीं उच्चार-प्रस्रवणखेल-जल्ल-सिंघाण-पारिष्ठापनिकासमिति याने ठल्ला, मात्रा, खंखार और सेडा (श्लेष्म) ये सब निर्जीव स्थान पर परठना, इन पाँच समितियों से समता हुए। पर श्री तीर्थंकर का आहार-निहार किसी की नजर में नहीं