________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (187) अवधिज्ञान से भगवान का उपसर्ग जान लिया। वे तुरन्त वहाँ आ कर किसान से बोले कि अरे दुष्ट ! क्या तुझे मालूम नहीं है कि ये श्री वर्द्धमानस्वामी नन्दीवर्द्धन राजा के भाई हैं? सिद्धार्थ राजा के पुत्र हैं ? इन्होंने दीक्षा ली है ? यह कह कर उन्होंने उस किसान को वहाँ से भगा दिया। फिर इन्द्र महाराज ने भगवान से कहा कि हे भगवन् ! बारह वर्ष तक आपकी छद्मस्थावस्था है। इसमें बहुत उपसर्ग होने वाले हैं। इसलिए यदि आप आज्ञा करें तो मैं हमेशा आप के पास रह कर आपकी सेवा करूँ तथा आप पर आने वाले उपसर्गों का निवारण करूँ। ऐसी मेरी भावना है। तब भगवान ने कहा कि हे इन्द्र ! यह बात कभी हुई नहीं, होती नहीं और होगी भी नहीं कि श्री अरिहन्त भगवान इन्द्र की सहायता से केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष जायें। अरिहन्त तो अपने बलवीर्य से ही केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष जाते हैं। यह सुनने पर भी मारणान्तिक उपसर्ग दूर करने के लिए इन्द्र ने भगवान की माता त्रिशलादेवी की बहन के पुत्र सिद्धार्थ व्यन्तर को आदेश दे कर भगवान के पास रखा। फिर इन्द्र महाराज अपने स्थान पर चले गये। किसान भी अपने घर गया। यहाँ सिद्धार्थ व्यंतर को मौसी का पुत्र कहा है, पर कहीं कहीं उसे काका भी कहा है। इति हालीकृत उपसर्गः। अब तीसरे दिन प्रभात के समय भगवान वहाँ से विहार कर कोल्लाग सन्निवेश गये। वहाँ बहुल नामक ब्राह्मण के घर कांस्यपात्र में खीर ले कर प्रभु ने परमान्न से पारणा किया। पात्र धर्म बताने के लिए उन्होंने गृहस्थ के कांस्यपात्र में खीर ग्रहण की। वहाँ पाँच दिव्य प्रकट हुए। यह भगवान का अतिशय है। वे पाँच दिव्य इस प्रकार हैं- 1. देव आकाश में ध्वजाविस्तार करते हैं, 2. सुगंधित जल बरसाते हैं, 3. पुष्पवर्षा करते हैं, 4. देवदुंदुभी बजाते हैं और 5. 'अहो दानं अहो दानम्' की ध्वनि करते हैं। प्रकारान्तर से पाँचवें दिव्य में साढ़े बारह करोड़ सुवर्णमुद्राएँ बरसाते हैं, ऐसा भी लिखा