________________ (196) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध वचन बोलना शुरु किया। ___ उसने कहा कि हे निर्भाग्य शिरोमणि ! अरे जन्मदरिद्री ! अरे निर्गुण नाथ ! अरे ढोला ! मैं तेरे धनरहित साक्षात् दरिद्री रूप को क्या करूँ? तू परदेश गया, पर कुछ नहीं लाया। तेरे दारिद्र्य रूप भाई के सहाय से अन्नं नास्त्युदकं नास्ति, गृहे नास्ति युगन्धरौ। शाकमध्ये लवणं नास्ति, तन्नास्ति यत्तु भुज्यते।।१।। अर्थात् घर में खाने के लिए अन्न नहीं है और पीने के लिए पानी नहीं है। यहाँ ज्वार भी नहीं है तथा साग में डालने के लिए नमक भी नहीं है। घर में ऐसा कुछ भी नहीं है कि जिससे तुझे आदरपूर्वक घर में बिठा कर जीमाऊँ। घर में एकमात्र दारिद्र्य लहक रहा है। आगे फिर ब्राह्मणी ने कहा- रे ढोला! धन से ही जगत में खास प्रेमपात्र हुआ जाता है। धन के अभाव में कोई किसी को नहीं पूछता। कहा भी है कि धनैर्दुष्कुलीनाः कुलीना भवन्ति, धनैरेव पापात् पुनर्निस्तरन्ति। धनिभ्यो विशिष्टो न लोकेऽपि कश्चित्, धनं प्रार्जयध्वं धन प्रार्जयध्वं।।१।। धन से हीन कुलवाला भी उत्तम कुलवाला कहलाता है, धन हो तो पाप से निस्तार हो जाता है और धनवान ही संसार में बड़ा कहलाता है, इसलिए धनोपार्जन करने का उद्यम पुरुष के लिए श्रेष्ठ है। इतना ही नहीं, धन के बिना जीवित मनुष्य मुर्दे जैसा होता है। जैसा कि कहा धनमर्जय काकुत्स्थ, धनमूलमिदं जगत्। अन्तरं नैव पश्यामि, निर्धनस्य मृतस्य च।।१।। जब रामचन्द्रजी को वनवास हुआ, तब उन्होंने सोचा कि वसिष्ठ ऋषि को नमस्कार कर के आगे बढ़ें। फिर कदलीवन में जहाँ वसिष्ठ ऋषि बैठे थे, वहाँ जा कर रामचन्द्रजी ने नमस्कार किया, पर वसिष्ठ ऋषि ने आँखें खोल कर सामने तक नहीं देखा। क्योंकि रामचन्द्रजी के पास उस समय कुछ भी धन नहीं था। फिर जब लंका जीत कर चतुरंगिणी सेनासहित तथा धन-धान्य सहित लौटे, तब वसिष्ठ ऋषि सात-आठ कदम उनके सामने गये। तब रामचन्द्रजी ने पूछा कि मैं वही रामचन्द्र हूँ, यह वही कदलीवन है तथा आप वसिष्ठ ऋषि भी वही हैं, पर पहले जब मैं आपके पास आया था, उस समय आपने आँखें खोल कर सामने तक नहीं देखा था और अब उठ कर सात-आठ कदम सामने आये, इसका क्या कारण है? तब वसिष्ठजी