________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (199) उयरे वि मा धरिज्जउ, पत्थणभंगो कओ जेण।।२।। हे माता ! दूसरों के पास प्रार्थना-याचना करने वाले पुत्र को तू जन्म मत देना और प्रार्थनाभंग करने वाले को तो उदर में भी धारण मत करना। और भी कहा है कियान्तु यान्तु बत ! प्राणाः, अर्थिनि व्यर्थतां गते। पश्चादपि हि गन्तव्यं, क्व सार्थः पुनरीदृशः।।३।। हे मेरे प्राणो ! जो याचक घर से व्यर्थ-निराश हो कर चला जाता है, उसके साथ तुम भी चले जाओ, क्योंकि तुम्हें बाद में भी तो किसी दिन जाना ही है, तो ऐसा साथ फिर तुम्हें कब मिलेगा? इसलिए तुम अभी ही चले जाओ। इस प्रकार शिष्टाचारयुक्त आचार का विचार कर के श्री महावीरदेव ने कृपा कर के आधा देवदूष्य वस्त्र फाड़ कर उस ब्राह्मण को दे दिया। ब्राह्मण को वस्त्रदान कर भगवान ने अन्य लोगों को यह सूचित किया कि जा सत्ति ता देह धन, इणपरि अक्खड़ वीर। पितामित्र बांभणभणी, आधो दीधो चीर।।१।। जब तक घर में संपत्ति है, तब तक धन, वस्त्र और अन्नादिक का दान देना चाहिये। यह बताने के लिए प्रभु ने पिता के मित्र ब्राह्मण को आधा वस्त्र दान में दिया। . वह ब्राह्मण आधा वस्त्र ले कर अपने घर गया। उसे वस्त्रसहित घर आते देख कर ब्राह्मणी हर्षित हो कर उठी और सामने आयी। फिर दोनों हाथ जोड़ कर बोली- हे प्राणनाथ ! हे मम जीवन ! गले के हार ! हे कान्त ! हे सुभग ! मैं मेघ के समान तुम्हारी राह देख रही थी। जैसे जलबिन मछली तड़पती है, वैसे ही मैं आपके बिना तड़प रही हूँ। ऐसे मधुर मनोहर वचनरचनाकथनपूर्वक अपूर्व रीति से अत्यन्त प्रेम से उसे स्नानादि करवाया। फिर भोजन पान तांबूलप्रमुख दे कर बहुत सम्मानपूर्वक सुखशय्या-शयन प्रमुख उपचार कर के उसे बहुत प्रसन्न किया। फिर वह ब्राह्मण उस वस्त्र की दसियाँ बँधवाने के लिए जुलाहे के पास गया। उस वस्त्र को अपूर्ण जान कर जुलाहे ने सोम विप्र से कहा कि हे ब्राह्मण ! इस वस्त्र का दूसरा टुकड़ा ले आओ, तो उसे जोड़ने पर यह