________________ (155) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध चकाचक काँच चिलकारा, पट्टकूल वस्त्र श्रृंगारा। झाड़ और हँडियाँ सोहे, सकल जनता के मन मोहे।।२।। पत्र सब केलि के छाये, दीवालें भव्य रंगवाये कुंकुम के छाँटणे दीये, सुगंधित महक वहाँ कीये।।३।। तोरण की त्यारी है चंगी, मंडप वह दिख रहा जंगी। अंगन सब शुद्ध पुतवाये, कीमती रत्न जड़वाये।।४।। बिछायत भव्य विरचाई, जाजमें जंगी मँगवाई। गलीचे बहुत गुलजारे, पाँतिये रेशमी सारे।।५।। कहीं पर मखमली आसन, खर्च की नहीं है विमासन। सोने के थाल रखवाये, पटों पर सर्व सजवाये।।६।। कटोरे वाटकी प्याले, स्वर्ण के एक से आले। लोटे अरु ग्लास बहुतेरे, अनेकों कर दिये भेरे।।७।। अभी सब न्यात बुलवावे, अनेकों आदमी आवे। स्वजन अरु मित्रगण सारे, स्वजाती बहत विस्तारे।।८।। आय कर पाँत पर बैठे, आसन पर कोई नहीं हेठे। आयी सब पुरसने वाली, दीखती बहुत रूपाली।।९।। अनोपम वस्त्र से शोभित, रूप अरु कांति से मोहित। किये हैं सोल सिणगारा, आभूषण दिव्य विस्तारा।।१०।। हाथ में शुद्ध जलझारी, तरुणों की दृष्टि को ठारी। आन कर हाथ धुपवाये, देखते काम उभराये।।११।। भोज्य फलादि फलों की प्रथम थी त्यारी, दिखावट अजब ही न्यारी। अखोड़ मिश्री की जाति, इसीविध अनेकों भाँति।।१२।। चोपड़ी चारोली केला, रायण और श्रीफल भेला। बहुत से बदाम अरु पिस्ते, मूल्य में वो नहीं सस्ते।।१३।।