________________ (168) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध में पंडितजी के पास ले चले। भगवान के पाठशाला-गमन के समय भाट स्तुतिगान कर रहे थे, ब्राह्मण वेदध्वनि कर रहे थे और बन्दीजन आशीर्वाद बोल रहे थे। सिद्धार्थ राजा के पुत्र सकल देश के अधिपति मेरे पास पढ़ने आ रहे हैं, यह जान कर उस समय पंडितजी भी अहंकार धारण कर बड़ा आसन लगवा कर सजधज कर दो मणिबंध, दो बाहु, दो कक्षा, दो कान, दो कानमूल, एक ललाट और एक गला इन बारह स्थानों में तिलक कर के अपने परिवार को सजा कर इन्तजार करते बैठे। ___ उस अवसर पर इन्द्र महाराज का आसन भी ध्वजा के समान कंपायमान हुआ तथा जल में स्थित चन्द्रबिंब के समान अथवा हाथी के कान के समान चपल हुआ। उस समय इन्द्र महाराज ने अवधिज्ञान से देखा, तब मालूम हुआ कि भगवान पढ़ने के लिए पाठशाला जा रहे हैं। यह देख कर इन्द्र महाराज को कुतूहल हुआ। वे सोचने लगे कि यह मोहनीय का प्रभाव अद्भुत है। माता-पिता को लगता है कि हम इन्हें पढ़ायें। पर भगवान तो तीन ज्ञानसहित हैं। ये महागंभीर है। इन्हें क्या पढ़ना है? ये तो पढ़े-लिखे और समझदार हैं तथा स्वयंबुद्ध हैं। अमृत को मधुर क्या बनाना है? सरस्वती को पोथी क्या दिखानी है? चन्द्रमा में उज्ज्वलता क्या लाना है? आम को तोरण क्या बाँधना है? तथा माँ के आगे ननिहाल का क्या वर्णन करना है? वैसे ही ये भी अज्ञान के कारण व्यर्थ ही भगवान को पाठशाला ले जा रहे हैं। पर अब भगवान की आशातना नहीं होनी चाहिये। यह सोच कर शक्रेन्द्र ब्राह्मण का रूप बना कर पाठशाला में पहुँच गये। उस समय भगवान पाठशाला में पहुँच चुके थे। तब शक्रेन्द्र ने ब्राह्मण को सिंहासन से उतार कर भगवान को ऊँचे सिंहासन पर बिठाया। फिर उपाध्याय के पास बैठ कर उससे कुछ शास्त्रार्थ किया; पर उपाध्याय उत्तर बराबर न दे सका। तब वे ही प्रश्न भगवान से पूछे। भगवान ने निःशंक होकर तत्काल उन प्रश्नों के उत्तर दिये। यह देख कर अध्यापक मन में सोचने लगा कि इस विषय में तो आज तक मुझे भी अनेक शंकाएँ थीं। मैंने अनेक पंडितों से पूछा था; पर किसी ने भी मेरी शंकाओं का समाधान नहीं