________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (101) अन्य भी अनेक जाति के उत्तम रत्न सोने के बड़े थाल में भरे हुए थे। मेरुपर्वत जितनी ऊँची, आकाश में देदीप्यमान ऐसी रत्नों की राशि त्रिशलादेवी ने तेरहवें सपने में देखी। __ चौदहवें स्वप्न में निर्धूम अग्नि देखी। वह अग्नि बहुत उजली, निर्मल, पीले और लाल वर्णवाली तथा मधु और घृत से सिंचित, निधूम धगधगायमान जाज्वल्यमान शिखावाली है। उस अग्नि में अनेक छोटी शिखाएँ हैं तथा कोई शिखा अधिक ऊँची तो कोई उससे भी अधिक ऊँची ऐसी अनेक शिखाएँ हैं। बहुत छोटी ऐसी अनेक ज्वालाओं से अग्निशिखाएँ मिल रही हैं। उस अग्नि में अनेक ज्वालाएँ आपस में मिल रही हैं। ऐसी धूम्ररहित अग्नि की ज्वालाएँ आकाशप्रदेश में धधक रही हों, उनके समान अति चपल अग्नि की शिखा त्रिशलादेवी ने चौदहवें सपने में देखी। इन स्वप्नों में बारहवें स्वप्न में देवविमान कहा गया है, सो जिस तीर्थंकर का जीव देवलोक से च्यव कर माता की कोख में आता है, उसकी माता विमान देखती है और जिस तीर्थंकर का जीव नरक से निकल कर माता की कोख में आता है, उसकी माता बारहवें सपने में भवन देखती हैं, ऐसा रहस्य है। ___ये चौदह स्वप्न देख कर त्रिशलारानी जागृत हुई। ये स्वप्न शुभ हैं, सौम्य हैं, बहुत सुन्दर और वल्लभ है दर्शन जिनका, शुभ रूप है जिनका, ऐसे हैं। ऐसे स्वप्न देख कर त्रिशलामाता जाग गयी। जैसे कमल खिलता है, वैसे उसके नेत्र विकसित हुए। हर्ष के कारण से उसका सर्व अंग हर्षयुक्त हुआ। उसकी सर्व रोमराजि उल्लसित हुई। ये चौदह सपने सब तीर्थंकरों की माताएँ जब तीर्थंकर गर्भ में आते हैं, तब देखती हैं। वैसे ही त्रिशलादेवी ने भी श्री महावीरस्वामी कोख में आये, इस कारण से ये चौदह सपने देखे। इसके बाद त्रिशला क्षत्रियाणी पूर्व में कहे हुए चौदह स्वप्न देख कर जागने के बाद अपने हृदय में बहुत प्रसन्न हुई। सन्तुष्ट हुई। मेघ की धारा