________________ - श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (145) तारे लगे, तब वे पसीने की बूंदों जैसे दीखने लगे। इस तरह सब इन्द्र और देव अपना अपना विमान संकोच कर नन्दीश्वर द्वीप में आये। फिर सौधर्मेन्द्र ने भगवान के जन्मघर में जा कर भगवान तथा भगवान की माता को नमस्कार कर के तीन प्रदक्षिणा दे कर भगवान की माता से कहा कि हे रत्नकुक्षिधारिणी ! हे रत्नगर्भे ! हे रत्नदीपिके ! हे माता ! मैं प्रथम देवलोक का इन्द्र हूँ। तुम्हारा पुत्र चौबीसवाँ तीर्थंकर है। उसका जन्म महोत्सव करने के लिए मैं आया हूँ। इसलिए तुम बिल्कुल मत डरना। इतना कह कर 'नमोऽस्तु रत्नकुक्षिधारिके तुभ्यम्' * बोल कर भवान की माता को अवस्वापिनी निद्रा दे कर तथा भगवान जैसा ही अन्य रूप बना कर माता के पास रख कर इन्द्र ने अपने पाँच रूप बनाये। फिर एक रूप से दो हाथों से करसंपुट में भगवान को रखा, एक रूप से भगवान पर छत्र रखा, दो रूप से दोनों ओर. चामर ढुलाने लगा तथा एक रूप से वज्र उछालते हुए भगवानं के आंगे चलने लगा। इस प्रकार कुल पाँच रूप इन्द्र ने वैक्रिय किये। उनमें आगे वाला पीछे वाले के रूप की प्रशंसा करता था और पिछला अगले के रूप की प्रशंसा करता था। इस प्रकार पाँच रूप से इन्द्र महाराज मेरुपर्वत पर पांडुकवन में भगवान को ले आये। मेरु की चूलिका से दक्षिण दिशा में अति-पांडुकमला शिला के तले शाश्वत सिंहासन है। उस पर भगवान को गोद में ले कर इन्द्र महाराज पूर्व सम्मुख बैठे। तब वहाँ बारह देवलोक के दस इन्द्र, भवनपति के बीस इन्द्र, व्यन्तर के बत्तीस इन्द्र और चन्द्रमा तथा सूर्य ये दो ज्योतिषियों के इन्द्र इस प्रकार सब मिल कर चौसठ इन्द्र सपरिवार प्रभु का स्नात्र करने के लिए जमा हुए। अभिषेक-कलशों की संख्या और परिमाण .. फिर सब इन्द्रों ने अपने अपने सेवक देवताओं से तीर्थोदकपूर्ण आठ जाति के कलश मँगवाये। उनमें सुवर्णमय 1, रौप्यमय 2, रत्नमय 3, सुवर्णरौप्यमय 4, सुवर्णरत्नमय 5, रत्नरौप्यमय 6, सुवर्णरौप्यरत्नमय 7