________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (143) अपने स्थान पर वापस जाती हैं। ये देवियाँ भवनपति के अन्तर्गत एक पल्योपम की आयुवाली जानना। इन देवियों का यही आचार है कि तीर्थंकर का जन्म होने से प्रथम इनका आसन चलायमान होता है, तब प्रभु का पहला जन्ममहोत्सव ये देवियाँ करती हैं। इनके बाद अन्य इन्द्रादिक देव करते हैं। इन्द्रकृत जन्ममहोत्सव दिक्कुमारिकाओं का महोत्सव होने के बाद चौसठ इन्द्रों के आसन चलायमान हुए। तब श्री महावीर भगवान का जन्म अवधिज्ञान से जान कर प्रथम सौधर्मेन्द्र ने हरिणगमेषी देव को बुला कर बारह योजन चौड़ा, छह योजन ऊँचा तथा एक योजन (मतान्तर से चार योजन) नाल वाला 'सुघोषा' नामक घंटा बजाने का हुक्म दिया। उसने पाँच सौ देवों के साथ घंटा बजाया। उस घंटे की ध्वनि से सौधर्म देवलोक के बत्तीस लाख विमान के सब घंटे अपने आप बजने लगे। तब सब देवता सावधान हो गये। इसी प्रकार शंखनाद सुन कर भवनपतिदेव, पटहनाद सुन कर व्यन्तरदेव तथा सीयनाद सुन कर ज्योतिष्कदेव सावधान हो गये। कहा भी है कि सुणिऊण संखसई, मिलंति भवणा य विंतरा पडह। जोइसियं सीयनायं, घंटेण विमाणिया देव।।१।। फिर ईशानेन्द्र ने लघुपराक्रम नामक देवता से सुघोषा घंटा बजवाया। इसी प्रकार शेष इन्द्रों ने भी अपने-अपने देवों से घंटा बजवाया। तब इन्द्र महाराज का कोई काम है, ऐसा जान कर सब देव उनके सम्मुख उपस्थित हुए। इसके बाद सौधर्मेन्द्र पालक नामक देव द्वारा निर्मित एक लाख योजन के पालक विग्रन के मध्यभाग में पूर्व दिशा के सम्मुख सिंहासन पर बिराजमान हुए। उनके सम्मुख आठ अग्रमहीषियाँ आठ भद्रासनों पर बैठीं। उनके बायीं ओर चौरासी हजार सामानिक देव भद्रासनों पर बैठे तथा दाहिनी ओर तीन पर्षदाएँ बैठीं। उनमें बारह हजार अभ्यन्तर पर्षदा के, चौदह हजार मध्यम पर्षदा के तथा सोलह हजार बाह्य पर्षदा के इस प्रकार कुल मिला कर बयालीस हजार देव भद्रासनों पर बैठे। इन्द्र के पीछे सात