________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (51) में प्रवीण और अन्य भी ब्राह्मणों के शास्त्रों में तथा परिव्राजकों के शास्त्रों में अत्यन्त निपुण होगा। ऐसा तुम्हारा पुत्र होगा। इसलिए तुमने अच्छे स्वप्न देखे हैं, यावत् आरोग्यकारक स्वप्न तुम्हें आये हैं। ऐसा बार बार कहते हुए वह स्वयं भी अनुमोदना करने लगा। - अब देवानन्दा ब्राह्मणी ऋषभदत्त ब्राह्मण के मुख से ऐसे अर्थ सुन कर, उन्हें मन में धारण कर हर्ष-संतोषयुक्त हृदय से सिर झुका कर अंजलीबद्ध हो कर कहने लगी कि हे देवानप्रिय ! यह बात जैसी तुमने कही है, वैसी ही है। यह सत्य ही है, झूठ नहीं है। जो तुमने कहा है, वह सब सन्देहरहित है। इतना कह कर उन स्वप्नों को अच्छी तरह अंगीकार कर वह ऋषभदत्त ब्राह्मण के साथ मनोहर भोग भोगते हुए अपना समय व्यतीत करने लगी। ___उस काल में शक्रेन्द्र, जिसके हाथ में दैत्यों का विदारण करने वाला वज्र है और जिसने पूर्वभव में श्रावक की पाँचवी प्रतिमा एक सौ बार वहन कर के शतक्रतु ऐसा दूसरा नाम प्राप्त किया है; वह देवों का राजा था। पूर्व के कार्तिक सेठ के भव की अपेक्षा से उसका नाम शतक्रतु पड़ा था। उस कार्तिक सेठ की कथा कहते हैं कार्तिक सेठ की कथा ___. 'पृथ्वीभूषण नगर में प्रजापाल नामक राजा था। उस नगर में राजमान्य एवं अति धनाढ्य जैनधर्मी परम श्रावक कार्तिक सेठ रहता था। उसने श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं में से पाँचवी प्रतिमा एक सौ बार वहन की थी। इससे उसका शतक्रतु नाम लोगों में प्रसिद्ध हुआ। एक बार गैरिक नामक तापस जो महीने महीने बाद उपवास का पारणा करता था; उसने नगर के बाहर डेरा डाला। राजा आदि सब लोग उसे वन्दन करने गये, पर कार्तिक सेठ शुद्ध समकिती होने के कारण नहीं गया। इससे तापस उस पर क्रोध करने लगा। ऐसे में उस तापस को राजा ने अपने घर भोजन का न्योता दिया। तब तापस ने मन में सोचा कि अन्य सब लोग तो मुझे वन्दन करने आये; पर जैनधर्मी कार्तिक सेठ मेरे पाँव पड़ा नहीं है। इसलिए अब मैं उसे नमाऊँ। यह सोच कर उसने राजा से कहा कि हे राजन्! यदि कार्तिक सेठ अपनी पीठ पर खीर की