________________ (54) . श्री कल्पसूत्र-बालावबोध कोडाल गोत्र के स्वामी ऋषभदत्त ब्राह्मण की जालंधर गोत्रीय देवानंदा भार्या की कोख में उत्पन्न हुए देख कर शक्रेन्द्र मन में बहुत आनन्दित हुआ। उसके हृदय में अपार हर्ष छा गया। मेघधारा से आहत कदंबवृक्ष के फूल के समान उसके रोमांच विकसित हुए। उसके नयन और वदन कमल के समान प्रफुल्लित हुए। भगवान का अवतरण देख कर उस दर्शन से उत्पन्न हर्ष के कारण जिसके कडे, कंकण, बाजूबंध, मुकुट, कुंडल, हार तथा झुमके प्रमुख बड़े अलंकार प्रकर्ष से चलायमान हुए हैं, ऐसा इन्द्र तत्काल सिंहासन से उठ खड़ा हुआ। फिर चमकदार मणिरत्न के बाजोठ पर से उतर कर भले वैडूर्य रत्न, मरकत रत्न, अरिष्ठ रत्न और अंजन रत्न से निर्मित देदीप्यमान मणिरत्नजड़ित पाँवड़ी अपने पैरों से उतारी। फिर अखंड वस्त्र का एक शाटक उत्तरासंग कर के दोनों हाथ जोड़ कर तीर्थंकर श्री महावीरदेव के सामने सात-आठ कदम जा कर विमान में रहते हुए ही बायाँ घुटना जमीन पर स्थापन कर के थोड़ा सा झुक कर अपना मस्तक तीन बार धरती से लगाया। फिर चौथी बार जरा सा झुक कर थोड़ा ऊँचा हो कर कड़े, कंगन, बाजूबंध, झुमकों सहित स्तंभित भुजाओं को मोड़ कर दसों नख मिला कर दोनों हाथ जोड़ कर और मस्तक पर अंजली लगा कर वह . शक्रस्तव का पाठ बोला। उसका अर्थ इस प्रकार है नमस्कार हो श्री अरिहंत भगवन्तों को। आदि के करने वाले, चतुर्विध श्रीसंघरूप तीर्थ के करने वाले, श्रीसंघ को तारने वाले, किसी दूसरे के उपदेश के बिना अपने आप बोध को प्राप्त, पुरुषों में उत्तम, पुरुषों में सिंहसमान, पुरुषों में श्रेष्ठ पुंडरीक कमलसमान, पुरुषों में गंधहस्ती के समान- जैसे गंधहस्ती को देख कर अन्य हाथी भाग जाते हैं, वैसे ही श्री तीर्थंकर भगवान को देख कर परवादीरूप हाथी भाग जाते हैं। ऐसे भगवान, लोक में उत्तम, लोक के नाथ, लोक का हित करने वाले, लोक में दीपक समान, लोक में उद्योत करने वाले, अभयदान के दातार, ज्ञानचक्षु देने वाले, मोक्षमार्ग के दातार, संयमरूप जीवितव्य के दातार, शरण के दातार, बोधिबीज याने सम्यक्त्व के दातार, सब मरण मिटाने वाले, धर्म के