________________ (58) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध द्वितीय व्याख्यान .. इन्द्र महाराज नमस्कार करते हैं धर्म में चार अन्तर किये हैं जिन्होंने ऐसे चक्रवर्ती समान भगवान हैं। जैसे चक्रवर्ती तीन ओर समुद्र और एक ओर चुल्ल हेमवन्त पर्वत पर्यन्त राज करता है, वैसे भगवान दानादि चार प्रकार के धर्म की प्ररूपणा करते हैं। इसलिए उन्हें धर्मचक्रवर्ती कहते हैं। संसारसमुद्र में डूबते हुए प्राणियों के लिए द्वीपसमान शरणागत-वत्सल, अप्रतिहत ज्ञान और दर्शन धारण करने वाले, जिन्हें छद्मस्थपना नहीं रहा है ऐसे, स्वयं ने राग-द्वेष को जीता-दूसरों को जीताने वाले, स्वयं संसार-समुद्र से तिर गये-दूसरों को संसार-समुद्र से तारने वाले, स्वयं ने तत्त्व को जाना है- दूसरों को तत्त्व का बोध कराने वाले, स्वयं कर्मरहित हुए- दूसरों को कर्म से मुक्त करने वाले, सर्वज्ञसर्वदर्शी, शिव याने निरुपद्रव, अचल, रोगरहित, जिसका अन्त नहीं और क्षय भी नहीं, बाधारहित, जहाँ से पुनः संसार में आना नहीं है, ऐसे सिद्धिगति नामक स्थानक को प्राप्त जिनेश्वर को मेरा नमस्कार हो। जीते हैं भय जिन्होंने ऐसे भगवन्त को नमस्कार हो। श्रमण भगवन्त श्री महावीर अन्तिम तीर्थंकर, आदि के करने वाले पहले तीर्थंकर श्री ऋषभदेव स्वामी ने बताये यावत् मोक्ष में जाने वाले उन्हें मैं वन्दन करता हूँ। भगवान तो वहाँ गर्भ में हैं और मैं देवलोक में हूँ, इसलिए वहाँ रहते हुए हे भगवन्! आप मुझे निहारें, ऐसा कह कर इन्द्र ने भगवान को नमस्कार किया। नमस्कार 1. इस तरह सब तीर्थंकरों के एक च्यवन कल्याणक, दूसरा जन्म कल्याणक, तीसरा दीक्षा कल्याणक, चौथा ज्ञान कल्याणक और पाँचवाँ निर्वाण कल्याणक इन पाँच कल्याणकों में सदा काल इन्द्र शक्रस्तव कहता है। याने शक्र जो इन्द्र है, वह स्तव याने स्तुति करता है, इसलिए उसे शक्रस्तव कहते हैं। वे इन्द्र महाराज शक्रस्तव कह कर रोमांचित होते हैं और आनन्द पाते हैं। पुनः इन पाँचों कल्याणकों में चौसठ इन्द्र इकट्ठे हो कर अट्ठाई महोत्सव प्रमुख कर के प्रत्येक कल्याणक की महिमा करते हैं। ऐसी सदा शाश्वत मर्यादा है। .