________________ (78) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध जब वीरक कोली घर लौटा, तब उसे वनमाला दिखाई नहीं दी। फिर उसने पड़ोसी से पूछताछ की, पर कुछ पता न लगने से भार्या के विरह में पागल हो कर वह सारे गाँव में 'हे वनमाला ! हे वनमाला !' करते हुए भटकने लगा। एक दिन वर्षाऋतु में वह राजमहल के नीचे आ कर खड़ा रहा। इतने में राजा भी वनमाला को साथ ले कर झरोखे में आ बैठा। राजा ने वीरक कोली को देख कर मन में सोचा कि मुझ जैसे पापी ने परायी औरत ले कर अत्यन्त लोकविरुद्ध अनार्य कार्य किया है। इसलिए मुझे धिक्कार है। इस प्रकार वह मन में बहुत ही आत्मनिंदा करने लगा। वनमाला ने भी सोचा कि मुझ जैसी पापिनी ने स्नेहवंत भरतार का त्याग किया, यह अच्छा नहीं किया। यह मेरे विरह से ग्रंथिल हो गया है। इसलिए अब मेरी क्या गति होगी? इस प्रकार दोनों जन पश्चात्ताप कर रहे थे। इतने में अकस्मात् ऊपर से बिजली गिरने से दोनों जन शुभध्यान में मरण प्राप्त कर हरिवर्ष क्षेत्र में युगलिकरूप में उत्पन्न हुए। वहाँ उनके समस्त मनोवांछित कल्पवृक्ष पूर्ण करते थे। इस प्रकार वे सुखपूर्वक रहते थे। - इसके बाद वीरक कोली भी उन दोनों की मृत्यु जान कर, ग्रंथिल भाव त्याग कर अज्ञान तपस्या कर के मृत्यु के बाद किल्विषिक देवों में उत्पन्न हुआ। वहाँ उसने अवधिज्ञान से यह जाना कि अरे! मेरे पर्व भव के बैरी तो युगलिक हुए हैं। ये यहाँ से मर कर पुनः देव बनेंगे। इसलिए ये देव न हों ऐसा कोई उपाय करना चाहिये। ऐसा विचार कर उसने युगल को वहाँ से उठा लिया। उस समय चंपा नगरी में इक्ष्वाकु वंश का चंडकीर्ति राजा निःसन्तान मर गया था। नगरी के सब लोग इस चिन्ता में पड़े थे कि अब हमारा राजा कौन होगा? इतने में उस देव ने वहाँ जा कर वह युगल नगरजनों को सौंप दिया और कहा कि मैं तुम्हारे लिए यह राजा लाया हूँ। इसे जब भूख लगती है; तब यह कल्पवृक्ष के फल खाता है। उसके साथ माँस मिला कर तुम लोग इसे खिलाना तथा इसे शिकार खेलना सिखाना। देव ने सोचा कि यह मांस भक्षण करेगा और मांसलोलुप बन जायेगा।