________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (63) महाविदेहक्षेत्र में सलिलावती विजय में वीतशोका नगरी के बल नामक राजा के धारिणी नामक रानी थी। उनके महाबल नामक पुत्र था। वह यौवन अवस्था को प्राप्त हुआ, तब राजा ने उसका पाँच सौ स्त्रियों के साथ विवाह किया। फिर वृद्धावस्था में पुत्र को राज्य दे कर स्वयं दीक्षा ले कर चारित्रपालन कर मोक्ष पहुँचा। अब महाबल राजा राज करने लगा। उसके एक अचल, दूसरा धरण, तीसरा अभिचन्द्र, चौथा पूर्ण, पाँचवाँ वस और छठा वैश्रमण ये छह मित्र थे। एक बार उन सातों ने गुरु के पास धर्म सुन कर दीक्षा ग्रहण की और ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। उन्होंने आपस में यह संकेत किया कि हम सब लोग छट्ठ-अट्ठमादिक जो तप करें, वह एकसमान बराबर करें, पर एक-दूसरे से अधिक-न्यून तप कोई न करे। उसके अनुसार वे सातों जन समान तप करने लगे। एक दिन महाबल ऋषि के मन में ऐसा विचार हुआ कि मैं इनसे कुछ अधिक तप करूँ, जिससे मैं सब से अधिक तपस्वी बनें। ऐसा निश्चय कर जब पारणा करने का दिन आता, तब उन छह जनों से वे यह कहते कि मेरा तो सिर दुखता है। मैं आज पारणा नहीं करूँगा। तुम लोग सुखपूर्वक पारणा करो। फिर दूसरे दिन उनके समान तप करते। इस प्रकार कपट से उन्होंने बीसस्थानक तप किया और इससे तीर्थंकर नाम कर्म उपार्जन किया, परन्तु कपट के कारण स्त्रीपने का कर्म बाँधा। अन्त में सातों जन दो मास की संलेखना कर के चौरासी लाख पूर्व की आयु पूर्ण कर मृत्यु के बाद बत्तीस सागरोपम की आयु प्राप्त कर विजयंत नामक अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुए। .... फिर वहाँ से च्यव कर अचल का जीव अयोध्या का सुप्रतिबद्ध राजा हुआ। धरण का जीव चंपा नगरी में चन्द्रयशा राजा हुआ। अभिचन्द्र का जीव काशी नगरी में शंख राजा हुआ। पूरण का जीव श्रावस्ती नगरी में रुक्मी राजा हुआ। वसु का जीव कुरुदेश में अदीनशत्रु राजा हुआ। वैश्रमण का जीव कपिला नगरी में जितशत्रु राजा हुआ और महाबल का जीव