________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (65) उपसर्ग दूर कर दूंगा, नहीं तो तेरे जहाज डुबो दूंगा। यह कह कर वह जहाज़ समुद्र में डुबोने लगा। यह देख कर सब लोग मिल कर अरहन्नक से कहने लगे कि देवता ने जैसा कहा है, वैसा करो। तो भी अरहन्नक श्रावक का समकित दृढ़ होने से वह चलायमान नहीं हुआ। यह देख कर देवता ने तुष्टमान हो कर उसे कुंडलाभरण की जोड़ी दे कर उसके पाँव पड़ कर कहा कि अहो अरहन्नक ! तुम धन्य हो। हे कृतपुण्य! तुम्हारा जीविव्य सफल है। इन्द्र महाराज ने भरी सभा में तुम्हारा जो बखान किया; उसकी अवमानना कर मैंने तुम्हारा अपमान किया है। मेरा अपराध क्षमा करो। यह सुन कर अरहन्नक ने कहा कि इस लोक और परलोक का साधन ऐसा श्री जैन धर्म प्राप्त कर मैं कोई भी अन्य धर्म अंगीकार नहीं करूँगा। तब देवता ने उसे पुनः दो कुंडल दिये। फिर वह अपने स्थान पर चला गया। वह व्यापारी कुशलक्षेम गंभीरपत्तन पहुँचा। वहाँ व्यापार कर के फिर मिथिला नगरी पहुँचा। वहाँ देवता के दिये हुए चार कुंडलों में से दो कुंडल उसने राजा को अर्पण किये। राजा ने वे कुंडल मल्लीकुमारी को दिये। फिर अरहन्नक व्यापारी चंपानगरी लौटा। उसने चंपानगरी के राजा को शेष दोनों कुंडल दे दिये। राजा ने पूछा कि हे व्यापारी! तुमने परदेश में क्या कोई आश्चर्य देखा है? यह सुन कर व्यापारी बोला कि हमने मल्लीकुमारी का रूप अद्भुत देखा है। वैसा रूप अन्यत्र कहीं भी देखा नहीं है। फिर चन्द्रयशा राजा ने भी कुंभ राजा के पास दूत भेज कर कहलवाया कि तुम्हारी पुत्री मल्लीकुमारी का ब्याह मेरे साथ करो। इति द्वितीय दूत / / 2 / ... दिन मल्लीकुमारी के दोनों कुंडल टूट गये। तब कुंभ राजा ने सुनारों को बुला कर कहा कि यह कुंडल की जोडी जोड़ दो। तब कुंडल देख कर सुनार बोले की महाराज ! ये कुंडल जोड़े नहीं जा सकते। ये तो देवकुंडल है। इन्हें हम कैसे जोडें? तब राजा ने सब सुनारों को देश निकाला दे दिया। फिर वे सुनार वाराणसी नगरी गये। वहाँ शंख राजा ने उनसे पूछा कि तुमने देश क्यों छोड़ा? तब सुनार बोले कि महाराज।