________________ (34) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध कोड़ाकोड़ी सागरोपम का है। उसमें मनुष्य की आयु एक पूर्व कोड़ी वर्ष की होती है और पाँच सौ धनुष्य प्रमाण उसका शरीर होता है। इस काल में युगलिक नहीं होते। इस कारण से जिस समय जितना चाहिये, उस समय उतना भोजन करते हैं। मृत्यु के बाद वे चारों गतियों में से किसी भी गति में जाते हैं। कोई कोई जीव कर्मक्षय कर के मोक्ष भी जाते हैं। यह अवसर्पिणी का चौथा आरा और उत्सर्पिणी का तीसरा आरा इनकी स्थितिमर्यादा जानना। पाँचवाँ दुखमा नामक आरा इक्कीस हजार वर्ष का है। उसमें मनुष्य की आयु एक सौ बीस वर्ष की होती है और सात हाथ का उसका देहमान होता है। मृत्यु के बाद वह चार गतियों में से किसी भी गति में जाता है। इस आरे में सब कर्मों का क्षय कर के कोई भी मोक्ष नहीं जाता। यह अवसर्पिणी काल का पाँचवाँ आरा और उत्सर्पिणी काल का दूसरा आरा इनकी स्थिति-मर्यादा जानना। छठा दुखमा-दुखमा नामक आरा इक्कीस हजार वर्ष का है। इसमें मनुष्य की आयु सोलह वर्ष की होती है और एक हाथ का उसका शरीर होता है। उसका निवास बिल में होता है। सब मनुष्य क्रूरकर्मी, न्यायमार्गरहित और दुर्गति में जाने वाले जीव होते हैं। यह अवसर्पिणी काल का छठा और उत्सर्पिणी काल का पहला आरा इनकी स्थिति-मर्यादा जानना। इस तरह ये छह अवसर्पिणी के और छह उत्सर्पिणी के मिल कर छह दु बारह आरे होते हैं। इनका काल कुल मिला कर बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण होता है। ___ इसमें अवसर्पिणी का सुखम-सुखमा नामक पहला आरा संपूर्ण हुआ। फिर सुखमा नामक दूसरा आरा भी संपूर्ण हुआ तथा सुखम-दुखमा नामक तीसरा आरा भी व्यतिक्रम हो गया और दुखम-सुखमा नामक चौथा आरा भी बहुत बीत गया। याने कि उसमें से भी बयालीस हजार पचहत्तर वर्ष और साढ़े आठ महीने - इतने वर्ष न्यून एक कोड़ाकोड़ी सागरोपम बीत गये। उसमें इक्कीस तीर्थंकर श्री इक्ष्वाकु कुल में हुए। उनका काश्यप गोत्र