Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
View full book text
________________
जैनसम्प्रदायशिक्षा। जो जानै व्यवहार नय, दृढ व्यवहारी होय ॥
शुभ करणी सों रमि रहै, वैश्य कहावै सोय ॥ १४४ ॥ जो व्यवहार नय को जानता हो, व्यवहार में दृढ हो तथा शुभ करणी (सुन्दर कर्मों) में रमण करता हो ( तत्पर रहता हो) उसी को वैश्य कहना चाहिये ॥ १४४ ॥
जो मिथ्या तम आदरै, राग दोष की खान ॥
विनय विवेक कृतिहिं करै, शूद्र वर्ण सो जान ॥ १४५ ॥ ___ जो मिथ्यातम का आदर करे, राग और दोप की खान हो तथा अपने कर्तव्य विनय को ही जानकर सब कार्य करे, उसी को शूद्र वर्ण जानना चाहिये॥१४५।।
सजन सुनियो कान दै, गृह आश्रम के बीच ॥ नीति न जानै जो पुरुष, करै काम वह नीच ॥ १४६॥ तत्त्व विचारै नीति को, जो नर चित्त लगाय ॥ तीन लोक की सम्पदा, अनायासै वह पाय ॥ १४७ ॥ शिशुलीला मैंने करी, छमौ मोहिँ सुज्ञान ॥ कविता जानौं मैं नहीं, नाहँ मोहिँ पिङ्गल ज्ञान ॥ १४८ ॥ चाणक नीती सार गहि, कमली रक्षक कीन ॥ नीतिसार दोहावली, त्रुटि सब छमहु प्रवीन ॥ १४९ ॥ यह द्वितीय अध्याय का चाणक्य नीतिसार दोहावलि नामक प्रथम
प्रकरण समाप्त हुआ ॥
१-देखो १४२ वें दोहे का नोट । यह नयों का प्रकरण बहुत बड़ा है-इस वास्ते इस विषय में यहां नहीं लिखा गया है किन्तु इस का विषय दूसरे ग्रन्थों में देखना चाहिये ॥ २-वैश्य को व्यवहार में सदा दृढ़ रहना चाहिये-तथा अपने वचन पर कायम रहना चाहिये-किन्तु लोकों का धन लेकर दिवाला नहीं निकाल देना चाहिये॥ ३-शुभ करणी में अर्थात् दान, परोपकार, पशुरक्षण, विद्यावृद्धि, साधुसेवा और धर्मव्यवहार में तत्पर रहना चाहिये ।। ४-मिथ्यातम शब्द का अर्थ अज्ञानान्धकार है-अर्थात् अशानान्धकार से होनेवाले कार्यो का आदर करै-जैसेक्रोध, मान, माया, लोभ और परोपकार आदि निकृष्ट कार्यों को अच्छा समझे-किन्तु ज्ञानमम्बंधी कार्यों में श्रद्धा न रक्खे ॥ ५-क्योंकि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, इन तीन वर्णों का विनय करना ही शूद्र का मुख्य कर्तव्य है-जैसा धर्म के शास्त्र में लिखा है कि-"एकमेव तु शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत् ॥ एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषामनसूयया ।। १॥" अर्थात् असूयारहित होकर तीन वर्णों की शुश्रूषा (सेवा और विनयादि) करना ही शूद्र का मुख्य कर्तव्य है । ६-ग्रन्थकर्ता के विनय के दोहे ॥ ७-विना परिश्रम ही ॥ ८-बाललीला अर्थात् बच्चों का खेल ॥ ९-छन्द का एक ग्रन्थ है॥ १०-श्रीपाल वा श्रीपालचन्द्र ।।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com