Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
प्रथम अध्ययन स्वप्नदर्शन
इस प्रकार ज्ञेय, हेय एवं उपादेय तीनों ही प्रकार के विषयों के उनमें वर्णन प्राप्त होते हैं। ज्ञेय तो सभी विषय हैं किन्तु उनमें उपादेय या ग्राह्य वही हैं, जिनसे आत्मा का हित हो, जो आत्मा के लिए श्रेयस्कर हों। वे सब हेय या त्याज्य हैं जो आत्मा के लिए अहितकर हैं।
-
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जन जीवन के सर्वांगीण विवेचन की दृष्टि से जैन आगमों में जो सामग्री उपलब्ध है, वह भारतीय संस्कृति, सभ्यता, लोक जीवन के विविध पक्ष इत्यादि के ज्ञान की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । ढाई हजार वर्ष पूर्व के जन-जीवन का सजीव चित्रण जो जैन आगमों में प्राप्त होता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। इसलिए आत्म-साधना के लिए जैन आगमों के अध्ययन की उपयोगिता तो है ही इसके साथ ही प्राचीन कालीन राज्य व्यवस्था, व्यापार, कृषि, उद्योग, शिक्षा, राजनीति, समाजनीति आदि अनेक विषयों के प्रामाणिक ज्ञान की दृष्टि से भी उनका अत्यधिक महत्त्व है। इस सूत्र में वर्णित भवन, प्रासाद और शय्या इसके उदाहरण हैं, जिनसे कला के क्षेत्र में हमारे देश की उन्नति -प्र - प्रवणता का परिचय प्राप्त होता है ।
जैन आगमों में जहाँ भी महापुरुषों के जीवन-वृत के प्रसंग हैं, वहाँ मातृ-गर्भ में उनके आने के समय माताओं को स्वप्न आने के उल्लेख हैं। इससे प्रकट होता है कि सबका तो नहीं पर किन्हीं विशेष स्वप्नों का जीवन में आने वाली घटनाओं के साथ कुछ न कुछ सम्बन्ध अवश्य है।
स्थानांग सूत्र स्थान - ५, व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र १६ - ६१ महापुराण - ४१, ५७-६०
स्थानांग एवं व्याख्या प्रज्ञप्ति सूत्र में यथातथ्य स्वप्न, प्रसान स्वप्न, चिन्ता स्वप्न, तद्विपरीत एवं अव्यक्त स्वप्न के रूप में पाँच प्रकार के स्वप्नों का उल्लेख है। जैसा कि इनके नामों से प्रकट होता हैं, ये क्रमशः अनुकूल-प्रतिकूल, शुभ-अशुभ फल की प्राप्ति, घटना विशेष का विस्तार से देखना, मनःस्थित चिन्ता को स्वप्न में देखना, स्वप्न में दृष्ट घटना का विपरीत प्रभाव तथा स्वप्न में देखी गई घटना का पूर्णतः ज्ञान न रहना- इन भावों के द्योतक हैं ।
आचार्य जिनसेन ने महापुराण में स्वस्थ एवं अस्वस्थ के रूप में उनके दो भेद बतलाये हैं, जो शारीरिक स्वस्थता एवं अस्वस्थता की दशा में आने वाले स्वप्नों के सूचक हैं ।
जैन दर्शन की दृष्टि से विचार किया जाए तो स्वप्न का कारण दर्शन मोहनीय कर्म का उदय है। दर्शन मोह के उदित होने के परिणाम स्वरूप मन में राग-द्वेष का स्पन्दन होता है,
Jain Education International
२६
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org