Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
शरीर वैसी स्थिति अपना लेता है। वहाँ न तो वह स्वयं अपने शरीर की किसी प्रकार की देखभाल करता है और न अन्यों द्वारा ही वैसा करवाता है। इसे स्वीकार करने वाला साधक अपनी सब प्रकार की दैहिक चेष्टाओं का परित्याग कर देता है और सर्वथा निश्चेष्ट और निःस्पंद हो जाता है।
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पुनश्च समाधिमरण में साधक एकत्व भावना का सम्यक् अनुचिंतन करता हुआ देहातीत अवस्था या सर्वथा आत्ममयता, आत्मरमणशीलता स्वायत्त करने में सर्वथा समुद्यत रहता है। अन्तःप्रकर्ष की यह सर्वोच्च, सर्वोत्कृष्ट दशा है।
मेघकुमार के जीवन का एक वह भी पक्ष था, जब वह रात-दिन सुखोपभोग में आकंठ निमग्न था, जिसका रहन-सहन, जीवन ऐहिक सुविधाओं, अनुकूलताओं, प्रियताओं से सर्वथा व्याप्त था। जिसका प्रासाद मानों स्वर्ग का एक खण्ड था। खाद्य, पेय आदि विविध मधुर, सुस्वादु, मनोवांछित पदार्थ हर समय उसके लिए तैयार रहते थे। विविध मोहक सुगंधियों से जिसका आवास महकता था । आठ-आठ सुकोमल, सुंदर रूपवती पत्नियों का वह पति था। दास-दासियों से घिरा रहता था, जो क्षण-क्षण हाथ बांधे उसकी आज्ञा की प्रतीक्षा करते थे । स्वर्ण, मणि, रत्न आदि का उसके यहाँ इतना प्राचुर्य था कि प्रासाद का प्रांगण तक मणियों से रचित था ।
जीवन का एक दूसरा आयाम यह है, जहाँ उसने वैराग्य वश उन सब भोगों का एकाएक परित्याग कर दिया तथा अपने आप को संवेग, निर्वेद, त्याग, व्रत और तप में प्राण पण से लगा दिया। जिस शरीर पर धूल का कण भी असह्य था, उसी शरीर को त्याग, तप द्वारा उसने अस्थि कंकाल जैसा बना दिया। उसे भोग विषवत् प्रतीत होने लगे। आध्यात्मिक आनंद के अमृत का वह आस्वाद ले चुका था। यही कारण है कि उसने देह का आत्म-साधना में पूर्णतः उपयोग किया। जिस बहुमूल्य देह को अज्ञजन तुच्छ भोगों में गंवा देते हैं, उस देह की सच्ची सारवत्ता मेघकुमार ने सिद्ध कर दी । निःसंदेह मृत्यु को उसने महोत्सव का रूप दे दिया। भोग पर त्याग की विजय का यह एक अनुपम उदाहरण है।
(२०)
तए णं ते थेरा भगवंतो मेहस्स अणगारस्स अगिलाए वेयावडियं करेंति । शब्दार्थ - वेयावडियं - वैयावृत्य-सेवा-परिचर्या, अगिलाए - ग्लानि रहित ।
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