Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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रोहिणी नामक सातवां अध्ययन - उपसंहार
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तित्थस्स वुड्डिकारी, अक्खेवणओ कुतित्थियाईणं। विउसणरसेवियकमो, कमेण सिद्धिपि पावेइ॥१४॥
॥ सत्तमं अज्झयणं समत्तं॥ शब्दार्थ - उज्झियसाली - धान्य कणों को फेंकने वाली, जहत्थमभिहाणा - यथार्थ नाम युक्त, गुरुविदिण्णाई - गुरु द्वारा प्रदत्त, पडिवजिउं - परिवर्जित, भायणं - भाजन-पात्र, दुहत्तो - दुःखार्थ, सत्तो - आसक्त, चत्तो - त्यक्त, उवभुंजइ - खा जाता-नष्ट कर देता है, विउसाण - विद्वानों का, णाइपुज्जो - नाति पूज्य-असम्माननीय, जहत्थक्खा - यथार्थ आख्या-यथानाम तथा गुण युक्त, णिरइयारे - अतिचार या दोष रहित, पणयपओ - प्रणत पाद-चरणों में प्रणाम करने योग्य, सामित्तं - स्वामित्व-सर्वधिकार-संपन्नता, जुगप्पहाणेत्ति - युग प्रधान-अपने युग में आध्यात्मिक चेतना करने वाला, संसदं - सत्श्रद्धा, गोयमपहुव्व - गौतम प्रभु की तरह, अक्खेवणाओ - बुद्धि-वैभव द्वारा आकर्षित करता हुआ, कुतित्थियाईणंविपरीत मतानुयायियों का।
भावार्थ - जिस प्रकार कथानक में श्रेष्ठी सार्थवाह का कथन हुआ है, उसी प्रकार आध्यात्मिक पक्ष में गुरु का स्थान है। जैसे वहाँ ज्ञातिजन हैं वैसे ही धार्मिक पक्ष में श्रमण-संघ है। बहुएँ भव्य जीवों की प्रतीक रूप हैं। शालि धान के कण व्रत हैं॥१॥
उज्झिका नामक बहू जिसने शालि धान को फेंक दिया, वह यथा नाम तथा गुण है। वह प्रेषणकारित्व-सफाई एवं घर के बाहर की नौकरानी का काम सौंपे जाने के कारण अनगिनत दुःखों की खान बनी।। २॥
. उसी प्रकार जो भव्य जीव संघ के समक्ष गुरु द्वारा प्रदत्त व्रतों का परित्याग कर देता है, वह उस उझिका के जैसा है।॥ ३॥
वह इस लोक में लोगों के धिक्कार का पात्र होता है, अवहेलना योग्य होता है। वह परलोक में दुःख से पीड़ित होता हुआ विभिन्न योनियों में उज्झिका की तरह भटकता रहता है॥ ४॥ - अपने यथा गुण नाम युक्त भोगवतिका ने धान के कणों को खा लिया। उसे पीसना, रांधना, पकाना आदि कार्य दिए गए जो उसके लिए दुःख प्रद हैं।॥ ५॥
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