Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 440
________________ ४११ मल्ली नामक आठवां अध्ययन - मल्ली द्वारा प्रतिबोध .........११ केरिसए (य) परिणामे भविस्सइ? तं मा णं तुन्भे देवाणुप्पिया! माणुस्सएसु काम भोगेसु सजह रजह गिज्झह मुज्झह अज्झोववजह। शब्दार्थ - कल्लाकल्लिं - प्रतिदिन, मणुण्णाओ - मनोज्ञ-मन को प्रिय लगने वाले, दुरूव - दूषित, सजह - आसक्त, रजह - राग युक्त, गिज्झह - लोलुपता युक्त, मुज्झह - मूर्छायुक्त, अज्झोववजह - काम-भोगात्मक आर्तध्यान युक्त। भावार्थ - राजकुमारी मल्ली ने जितशत्रु आदि राजाओं से इस प्रकार कहा - देवानुप्रियो! यदि यह स्वर्णमयी यावत् मस्तक पर छेद युक्त प्रतिमा जिसमें प्रतिदिन श्रेष्ठ अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य पदार्थों का पिण्ड डाला जाता रहा है, यदि ऐसे अशुभ पुद्गल परिणामों में परिणति हो सकती है तो इस औदारिक शरीर, जो पित्त, वमन, कफ, शोणित तथा मवाद का निर्झर रूप है, दूषित श्वासोच्छ्वास, मूत्र विष्ठा से भरा हुआ है, जो सड़ने वाला यावत् मिटने वाला है, उसकी कैसी परिणति होगी, जरा सोचो? देवानुप्रियो! आप मानव जीवनगत काम भोगों में आसक्त, रंजित, लोलुप, मूछित एवं तन्मूलक आर्तध्यान में संलग्न न हों। ... विवेचन - मल्ली भगवती ने अपने ज्ञान के द्वारा सब से कम हिंसक इसी तरीके को जाना, अतः इसका उपयोग किया। यह तरीका अपने आप में सावध तो था ही। गृहस्थ अवस्था में स्नान आदि सावध प्रवृत्तियाँ भी करने वाले होने से ही इस तरीके को अपनाया गया था। अतः इसे प्रशस्त नहीं कहा जा सकता। (१४१) एवं खलु देवाणुप्पिया! तुम्हे (अम्हे) इमाओ तच्चे भवग्गहणे अवरविदेहवासे सलिलावइंसि विजए वीयसोगाए रायहाणीए महब्बलपामोक्खा सत्तवियबालवयंसया रायाणो होत्था सहजाया जाव पव्वइया। तए णं अहं देवाणुप्पिया! इमेणं कारणेणं इत्थीणामगोयं कम्मं णिव्वत्तेमि-जइ णं तुभं चउत्थं उवसंपजित्ताणं विहरह तए णं अहं छठें उवसंपजित्ताणं विहरामि सेसं तहेव सव्वं। . भावार्थ - देवानुप्रियो! मैं और आप इससे पूर्व के तीसरे भव में, अपरविदेह वर्ष के अन्तवर्ती सलिलावती विजय में, वीतशोका राजधानी में महाबल आदि सात बालमित्र राजा थे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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