Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
ईसाणे उत्तरिल्लं उवरिल्ल बाहं गेण्हइ । चमरे दाहिणिल्लं हेट्ठिल्लं बली उत्तरिल्लं हेल्लं अवसेसा देवा जहारिहं मणोरमं सीयं परिवहंति
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भावार्थ - देवेन्द्र देवराज शक्र ने मनोरमा नामक उस शिविका के दक्षिणी ओर के ऊपरी भाग को ग्रहण किया - वहन किया। ईशानेन्द्र ने उत्तरी ओर के ऊपरी भाग को उठाया ।
चमरेन्द्र ने दक्षिणी ओर के नीचे के भाग को वहन किया तथा बली ने उत्तरी ओर के नीचे के भाग को वहन किया। बाकी के देवताओं ने यथा योग्य स्थानों से शिविका को उठाया।
(१७६)
पुव्वि उक्खित्ता माणुस्सेहिं (तो) सा हट्ठरोमकूवेहिं । पच्छा वहंति सीयं असुरिंदसुरिंदणागेंदा ॥१॥
चल चवल कुंडल धरा सच्छंदविउव्वियाभरणधारी । देविंददाणविंदा वहंति सीयं जिणिंदस्स ॥ २ ॥
भावार्थ - सर्व प्रथम मनुष्यों ने उस शिविका को उठाया। हर्ष के कारण उनके शरीर के रोम कूप खिले थे। तत्पश्चात् असुरेन्द्रों, सुरेन्द्रों और नागेन्द्रों ने उस शिविका को उठाया ॥ १॥
इस प्रकार देवेन्द्र, दानवेन्द्र, जो जिनेन्द्र देव की शिविका को उठाए थे, उनके कानों में धारण किए कुण्डल हिल रहे थे। उन्होंने स्वेच्छा पूर्वक, वैक्रिय लब्धि द्वारा निष्पादित अनेक आभरण धारण कर रखे थे ॥२॥
(१७७)
तए णं मल्लिस्स अरहओ मणोरमं सीयं दुरूढस्स एमे अट्ठट्ठमंगलगा पुरओ अहाणुपुव्वीए एवं णिग्गमो जहा जमालिस्स ।
भावार्थ - तत्पश्चात् अर्हत मल्ली मनोरमा शिविका पर आरूढ हुए । उनके आगे यथाक्रम आठ मांगलिक प्रतीक चले। जिस प्रकार जमालि की दीक्षा के अवसर पर इनका वर्णन आया है, वैसा यहाँ ग्राह्य है।
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