Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 463
________________ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र विवेचन - उपर्युक्त पाठ में जो भी सम्पदा का वर्णन आया है। वह सब वर्तमान में एक साथ होने वाली उत्कृष्ट संख्या समझनी चाहिए। पूरे शासनकाल को मिलाकर तो इसे कई गुणी ज्यादा संख्या हो सकती है। सम्पदा का अर्थ " वर्तमान में विद्यमान सम्पत्ति” होता है। जैसे किसी के पास एक साथ में मौजूद चल-अचल सम्पत्ति एक लाख जितनी हो उसे ही लखपति कहा जाता है. किन्तु जीवन भर की कमाई को जोड़कर लाख रुपया होवे वह लखपति नहीं कहलाता है। वैसे ही यहाँ पर भी समझना चाहिए । (१२) ४३४ मल्लिस्स (णं) अरहओ दुविहा अंतगडभूमी होत्था तंजहा - जुयंतकरभूमी परियायंतकरभूमी य जाव वीसइमाओ पुरिसजुगाओ जुयंतकरभूमी दुवास परियाए अंतमकासी । भावार्थ - अरहंत मल्ली के तीर्थ में दो प्रकार की अन्तकृद् भूमि हुई । युगान्तर भूमि तथा पर्यायान्तर भूमि । युगान्तकर भूमि शिष्य - प्रशिष्य के रूप में - पाटानुपाट, बीस पाटों तक हुई। बीसवें पाट के बाद फिर आगे के अनुक्रम के पाट वालों में से किसी ने मोक्ष प्राप्त नहीं किया। बीच के कुछ पाट छोड़ने के बाद कोई मोक्ष गया हो तो कोई बाधा नहीं है। मल्ली अरहंत को केवलज्ञान प्राप्त होने के दो वर्ष का पर्याय होने पर पर्यायान्तर भूमि हुई। तब जिन्होंने मोक्ष प्राप्त किया, वे पर्यायान्तकर भूमि के अन्तर्गत हैं । विवेचन इस सूत्र में प्रयुक्त युगांतकर एवं पर्यायान्तकर शब्द अपना एक विशेष पारिभाषिक अर्थ लिए हुए हैं। शिष्य-प्रशिष्य के रूप में बीस पाट तक साधु मुक्त होते रहे, इसे युग शब्द द्वारा आख्यात किया गया है। इसका अभिप्राय यह हुआ अरहंत मल्ली के पश्चात् पहले पाट से लेकर बीस पाट तक होने वाले साधुओं ने मुक्ति प्राप्त की। तत्पश्चात् उनके तीर्थ में किसी ने मुक्ति प्राप्त नहीं की । 'भूमि' शब्द कालवाची है। पर्यायान्तकर शब्द का संबंध तीर्थंकर मल्ली के सर्वज्ञत्व प्राप्त करने के दो वर्ष के पर्याय से संबद्ध है। अर्थात् इस द्विवर्षीय काल के बाद जिन्होंने मुक्ति प्राप्त की वे पर्यायान्तकर भूमि में आते हैं। तीर्थंकर मल्ली के सर्वज्ञत्व प्राप्ति के इन दो वर्षों के पर्याय से पूर्व किसी भी साधु ने मुक्ति प्राप्त नहीं की। Jain Education International - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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