________________
४२०
ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
(१५७) तए णं से वेसमणे देवे जेणेव सक्के ३ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल जाव पच्चप्पिणइ।
भावार्थ - तदनंतर वैश्रमण देव देवेन्द्र शक्र के पास आया और हाथ जोड़ कर यावत् मस्तक झुकाकर उनकी आज्ञानुरूप किए जाने की सूचना दी।
विवेचन - पृथ्वी का एक नाम 'वसुन्धरा' भी है। वसुन्धरा का शब्दार्थ है - वसु अर्थात् धन को धारण करने वाली। ‘पदे पदे निधानानि' कहावत भी प्रसिद्ध है, जिनका आशय भी यही है कि इस पृथ्वी में जगह-जगह निधान-खजाने भरे पड़े हैं। जृम्भक देव अवधिज्ञानी होते हैं। उन्हें ज्ञान होता है कि कहाँ-कहाँ कितना द्रव्य पड़ा है। जिन निधानों का कोई स्वामी नहीं बचा रहता, जिनका नामगोत्र भी निश्शेष हो जाता है, जिनके वंश में कोई उत्तराधिकारी नहीं रहता, जो निधान अस्वामिक हैं, उनमें से जृम्भक देव इतना द्रव्य निकाल कर तीर्थंकर के वर्षीदान के लिए उनके घर में पहुँचाते हैं।
विपुल दान
(१५८) तए णं मल्ली अरहा कल्लाकल्लिं जाव मागहओ पायरासो त्ति बहूणं सणाहाण य अणाहाण य पंथियाण य पहियाण य करोडियाण य कप्पडियाण. य एगमेगं हिरण्णकोडिं अट्ठ य अणुणाई सयसहस्साई इमेयारूवं अत्थसंपयाणं दलयइ।
शब्दार्थ - सणाहाण - सनाथजन, अणाहाण - अनाथ, पंथियाण - निरंतर मार्ग गामी, पहियाण - प्रयोजनवश मार्ग पर चलने वाले राहगीर, करोडियाण - कापालिक-हाथ में कपाल (खोपड़ी) लिए भिक्षा मांगने वाले, कप्पडियाण - कार्पटिक-कंथाधारी भिक्षुओं को अणुणाई - पूरी।
भावार्थ - तब मल्ली अरहंत ने प्रातःकाल से लेकर मगध देश में प्रचलित प्राभातिक भोजन वेला तक बहुत से सनाथों, अनाथों, पांथिकों, पथिकों, कापालिकों, कार्पटिकों आदि को प्रतिदिन पूरी एक करोड़ आठ लाख स्वर्ण मुद्राएं दान में देने लगे।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org