Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 453
________________ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र शब्दार्थ - बुज्झाहि - बोध प्राप्त करो, पवत्तेहि - प्रवर्तित करो, णिस्सेयसकरं - मोक्ष प्रद । भावार्थ - भगवन्! बोध प्राप्त करें। धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करें। आप द्वारा प्रवर्तित धर्मतीर्थ प्राणियों के लिए हितप्रद, सुखकर एवं मोक्षदायक होगा। इस प्रकार उन्होंने दो बार तीन बार कहा। फिर मल्ली अरहंत को वंदन, नमस्कार किया। वैसा कर जिस दिशा से आए थे, उसी ओर लौट गए। विवेचन तीर्थंकर अनेक पूर्वभवों के सत्संस्कारों के साथ जन्म लेते हैं। जन्म से ही, यहाँ तक कि गर्भावस्था से ही उनमें अनेक विशिष्टताएं होती हैं। वे स्वयं बुद्ध ही होते हैं। किसी अन्य से बोध प्राप्त करने की आवश्यकता उन्हें नहीं होती। फिर लोकान्तिक देवों के आगमन की और प्रतिबोध देने की आवश्यकता क्यों होती है? इस प्रश्न का उत्तर प्रकारान्तर से मूल पाठ में ही आ गया है। तीर्थंकर को प्रतिबोध की आवश्यकता न होने पर भी लोकान्तिक देव अपना परम्परागत आचार समझ कर आते हैं। उनका प्रतिबोध करना वस्तुतः तीर्थंकर भगवान् के वैराग्य की सराहना करना मात्र है। यही कारण है तीर्थंकर का दीक्षा ग्रहण करने का संकल्प पहले होता है, लोकान्तिक देव बाद में आते हैं। तीर्थंकर के संकल्प के कारण देवों का आसन चलायमान होना अब आश्चर्यजनक घटना नहीं रहा है। परामनोविज्ञान के अनुसार, आज वैज्ञानिक विकास के युग में यह घटना सुसम्भव है। इससे तीर्थंकर के अत्यन्त सुदृढ़ एवं तीव्रतर संकल्प का अनुमान किया जा सकता है। ४२४ 1 (१६५) तणं मल्ली अरहा तेहिं लोगंतिएहिं देवेहिं संबोहिए समाणे जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छ, उवागच्छित्ता करयल जाव एवं वयासी - इच्छामि णं अम्मयाओ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए मुंडे भवित्ता जाव पव्वइत्तए । अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेह । भावार्थ - लोकांतिक देवों द्वारा यों संबोधित किए जाने पर मल्ली अरहंत माता-पिता के पास आए। उन्होंने दोनों हाथ जोड़े, मस्तक पर अंजलि किए कहा - माता- - पिता! आप से आज्ञा प्राप्त कर, मेरा मुण्डित होकर यावत् प्रव्रज्या लेने का भाव है। माता-पिता बोले- देवानुप्रिये! जैसे तुम्हें सुख हो, जो अच्छा लगे, वह करो । संयम ग्रहण करने में विलंब मत करो । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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