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वरुण,
मल्ली नामक आठवां अध्ययन देव - प्रेरणा
देवों से युक्त विविध वाद्यों की ध्वनि, नृत्य, गीत आदि के साथ, दिव्य भोग भोगते हुए, आनंद
निमग्न थे ।
सारस्वत, आदित्य, वह्नि,
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गाथा लोकांतिक एवं रिष्ट देवों के नाम इस प्रकार हैं गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध, आग्नेय एवं रिष्ट ।
देव - प्रेरणा (१६३)
तए णं तेसिं लोयंतियाणं देवाणं पत्तेयं २ आसणाइ चलंति तहेव जाव अरहंताणं क्खिममाणाणं संबोहणं करेत्तए-त्ति तं गच्छामो णं अम्हे वि मल्लिस्स अरहओ संबोहणं करेमि त्तिकट्टु एवं संपेर्हेति २ त्ता उत्तरपुरच्छि दिसीभायं ० वेउव्वियसमुग्धाएणं समोहणंति० संखिज्जाई जोयणाई एवं जहा जंभगा जाव जेणेव मिहिला रायहाणी जेणेव कुंभगस्स रण्णो भवणे जेणेव मल्ली अरहा तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अंतलिक्खपडिवण्णा सखिंखिणियाई जाव वत्थाई पवर परिहिया करयल जाव ताहिं इट्ठाहिं जाव एवं वयासी ।
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भावार्थ तब उन लोंकांतिक देवों में से प्रत्येक प्रत्येक के आसन चलित हुए यावत् एतत्संबद्ध पाठ पूर्ववत् ग्राह्य है। देवों ने यह विचार किया कि दीक्षा लेने को समुद्यत अरहंत भगवन्तों को देव संबोधित संप्रेरित करते हैं। इस परंपरा के अनुसार हम भी जाएं और मल्ली अरहंत को संबोधित करें। यों सोचकर उन्होंने ईशान कोण (उत्तर-पूर्व दिशा) में जाकर वैक्रिय समुद्घात द्वारा विक्रिया कर, उत्तर वैक्रिय शरीर धारण किया । यावत् जृंभक देवों की तरह दिव्यगति से संख्यातं योजन पार कर मिथिला राजधानी में राजा कुंभ के भवन में, मल्ली अरहंत के समक्ष उपस्थित हुए। वे आकाश स्थित थे। छोटे-छोटे घुंघरु युक्त यावत् पांच वर्णों के सुन्दर वस्त्र धारण किए हुए थे। हाथ जोड़े, मस्तक झुकाए, उन्होंने इष्ट यावत् मनोज्ञ वाणी में कहा
( १६४ )
बुज्झाहि भगवं ! लोगणाहा ! पवत्तेहि धम्मतित्थं जीवाणं हियसुहणिस्सेयसकरं भविस्सइ तिकट्टु दोच्वंपि तच्वंपि एवं वयंति • मल्लिं अरहं वंदंति णमंसंति वंदित्ता णमंसित्ता जामेव दिसिं पाउब्भूया तामेव दिसिं पडिगया ।
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