Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
४१२ ।
- ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
हम साथ ही उत्पन्न हुए थे यावत् साथ ही प्रव्रजित हुए। देवानुप्रियो! जब आप उपवास करते थे तब मैं बिना बताए बेला करती थी। इसीलिए मुझे स्त्रीनाम गोत्र उपार्जित हुआ। बाकी का वर्णन पूर्ववत् ग्राह्य है।
_ विवेचन - कोई भी जीव नववें गुणस्थान से पहले अवेदी नहीं होता है। अतः मल्लिराजकुमारी भी संयम ग्रहण करने के बाद क्षपक श्रेणी चढ़ते हुए नववें गुणस्थान में अवेदी बने थे। मल्ली भगवती के 'तवविसय चेव माया, जाया जुवइत्तहेउत्ति' बताया है। इसलिए उनके उस समय मायाशल्य का होना स्पष्ट होता है। मायाशल्य के द्वारा स्त्रीवेद का बंध होता है, अंगोपांग का नहीं। मल्ली भगवती के निकाचित स्त्रीवेद का बंध हो जाने के कारण आलोचना के द्वारा मायाशल्य का उद्धार (नाश) हो जाने पर भी निकाचित होने के कारण पूर्वबद्ध स्त्रीवेद की निर्जरा नहीं हुई। इसीलिए गृहस्थावस्था में 'स्त्रीवेद' का उदय रहा।
(१४२) तए णं तुन्भे देवाणुप्पिया! कालमासे कालं किच्चा जयंते विमाणे उववण्णा। तत्थ णं तु तुब्भे देसूणाई बत्तीसाइं सागरोवमाइं ठिई। तए णं तुब्भे ताओ देवलोयाओ अणंतरं चयं चइत्ता इहेव जंबुद्दीवे २ जाव साई २ रजाइं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ। तए णं अहं देवाणुप्पिया। ताओ देवलोयाओ आउक्खएणं जाव दारियत्ताए पच्चायाया।
किं थ तयं पम्हटुं जं थ तया भो! जयंत पवरंमि। वुत्था समयणिबद्धं देवा तं संभरह जाई॥
शब्दार्थ - पच्चायाया - उत्पन्न हुई, पम्हुटुं - भूल गए, पवरंमि - अनुत्तर (विमान) में, वुत्था - निवास करते थे, समयणिबद्धं - उस समय प्रतिज्ञात किया, संभरह - स्मरण करो।
भावार्थ - मल्ली ने आगे कहा - देवानुप्रियो! तत्पश्चात् आयुष्य पूर्ण होने पर यथासमय देह त्याग कर, तुम जयंत विमान में उत्पन्न हुए। वहाँ तुम्हारा आयुष्य कुछ कम बत्तीस सागरोपम था। उस देवलोक से च्युत होकर, आयुष्य पूर्ण कर यहाँ जम्बूद्वीप के अंतर्गत भरत क्षेत्र में अपने-अपने राज्य का आधिपत्य पाकर रह रहे हैं। . ___ गाथार्थ - देवानुप्रियो! मैं अपना आयुष्य पूर्ण कर देवलोक से यहाँ कन्या के रूप में
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org