Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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मल्ली नामक आठवां अध्ययन - चित्रकार राजा अदीनशत्र की शरण में
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पाहुडं उवणेइ २ ता एव वयासी-एवं खलु अहं सामी मिहिलाओ रायहाणीओ कुंभगस्स रणो पुत्तेणं पभावईए देवीए अत्तएणं मल्लदिण्णेणं कुमारे णं णिव्विसए आणत्ते समाणे इह हव्वमागए तं इच्छामि णं सामी! तुब्भं बाहुच्छाया परिग्गहिए जाव परिवसित्तए।
शब्दार्थ - संडासगं - संडासी की तरह तूलिका पकड़ने का अंग-हाथ का अंगूठा और तर्जनी अंगुली, छिंदावेइ - कटवा डालता है, छुन्भइ - दबा लेता है।
भावार्थ - राजकुमार मल्लदिन्न ने उस चित्रकार के हाथ के अंगूठे और तर्जनी अंगुली को कटवा दिया और उसे राज्य से निर्वासन की आज्ञा दे दी। यों किए जाने पर वह चित्रकार अपना सामान-चित्रकारिता के उपकरण आदि लेकर मिथिलानगरी से निकल पड़ा। आगे बढ़ता हुआ विदेह जनपद के बीच से गुजरता हुआ कुरुजनपद में, हस्तिनापुर में पहुंचा, जहाँ का राजा अदीन शत्रु था। उसने अपने सामान को यथा स्थान रखा। चित्र बनाने के लिए काष्ठ पट्टिका को तैयार किया। उस पर उत्तम विदेह राजकुमारी मल्ली का उसके अंगूठे के आधार पर चित्र तैयार किया। काष्ठ पट्टिका को कांख में दबाया। महत्त्वपूर्ण यावत् उपहार लिए। हस्तिनापुर नगर के बीचों-बीच होते हुए राजा अदीनशत्रु के सम्मुख उपस्थित हुआ। हाथ जोड़ कर यावत् मस्तक नवाकर राजा को वर्धापित किया - जय-जयकार किया तथा अपनी भेट अर्पित की। चित्रकार ने राजा से निवेदन किया - स्वामी! मिथिला राजधानी के राजा कुंभ के पुत्र, महारानी प्रभावती के आत्मज राजकुमार मल्लदिन्न द्वारा निर्वासित होकर मैं अविलंब यहाँ आया हूँ। स्वामी! आपकी भुजाओं की छत्रच्छाया में यावत् प्रवास करना चाहता हूँ।
(१०४) तए णं से अदीणसत्तु राया तं चित्तगरदारयं एवं वयासी-किण्णं तुमं देवाणुप्पिया! मल्लदिण्णेणं णिव्विसए आणत्ते?
भावार्थ - राजा अदीनशत्रु ने चित्रकार से कहा - देवानुप्रिय! मल्लदिन्न ने तुम्हें देशनिर्वासन की क्यों आज्ञा दी?
(१०५) ____तए णं से चित्तगरदारए अदीणसत्तु रायं एवं वयासी-एवं खलु सामी!
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