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मल्ली नामक आठवां अध्ययन - कुणालाधिपति रुक्मी
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पायग्गहणं करेइ। तए णं से रुप्पी राया सुबाहुं दारियं अंके णिवेसेइ २ त्ता सुबाहुए दारियाए रूवेण य जोव्वणेण य लावण्णेण य जाव विम्हिए (जायविम्हए) वरिसधरं सदावेइ, सहावेत्ता एवं वयासी - तुमं णं देवाणुप्पिया! मम दोच्चेणं बहूणि गामागरणगरगिहाणि अणुप्पविससि, तं अत्थियाई ते कस्सइ रण्णो वा ईसरस्स वा कहिंचि एयारिसए मजणए दिट्टपुव्वे जारिसए णं इमीसे सुबाहुदारियाए मजणए।
- शब्दार्थ - अंतेउरियाओ - अन्तःपुरवासिनी वनिताएं, सेयापीयएहिं - श्वेत एवं पीतचाँदी, सोने के, जायविम्हए .- आश्चर्यान्वित। ... भावार्थ - फिर अंतःपुरवासिनी वनिताओं ने सुबाहुकुमारी को बाजोट पर बिठाया। चांदीसोने के सफेद-पीले कलशों द्वारा उसे स्नान कराया। सब प्रकार के आभूषणों से उसे विभूषित किया एवं पिता के चरणों में वंदना करने हेतु वे उसे लाई। राजा रुक्मी ने सुबाहुकुमारी को अपनी गोद में बिठाया उसके रूप, यौवन और लावण्य को देखकर वह विस्मित हुआ। उसने अन्तःपुर के प्रहरी वर्षधर-नपुंसक को बुलाया और कहा - देवानुप्रिय! तुम मेरे दौत्य कार्य से अनेक गाँव, नगर, गृह आदि में जाते रहे हो। क्या किसी राजा या ऐश्वर्यशाली पुरुष के कहीं ऐसा स्नान महोत्सव देखा है, जैसा यहाँ सुबाहुकुमारी का आयोजित हुआ है।
(८३) तए णं से वरिसधरे रुप्पिं करयल जाव एवं वयासी-एवं खलु सामी! अहं अण्णया तुन्भेणं दोच्चेणं मिहिलं गए, तत्थ णं मए कुंभगस्स रणो धूयाए पभावईए देवीए अत्तयाए मल्लीए विदेहरायवरकण्णगाए मजणए दिढे तस्स णं मजणगस्स इमे सुबाहुएदारियाए मजणए सयसहस्सइमंपि कलं ण अग्घेइ।
. भावार्थ - तब वर्षधर ने राजा रुक्मी को हाथ जोड़ कर मस्तक झुकाकर इस प्रकार कहा-स्वामी किसी समय मैं आपके दूत कार्य से मिथिला गया। वहाँ मैंने राजा कुंभ की पुत्री,
महारानी प्रभावती की आत्मजा, विदेह राजकुमारी मल्ली का स्नान महोत्सव देखा। उसके समक्ष । सुबाहुकुमारी का यह स्नानोत्सव एक लाखवें अंश में भी नहीं आता।
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