Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
शब्दार्थ - साहुटु - संहृत्य-डालकर, कलायाणं - स्वर्णकार, णिव्विसए - निर्वासित।
भावार्थ - तब राजा कुंभ उन स्वर्णकारों से यह सुनकर तत्काल क्रोधाविष्ट हो गया। ललाट पर भृकुटि चढ़ाकर तीन सलवट डालकर यों बोला- तुम कैसे स्वर्णकार हो, जो इस कुंडल के जोड़ भी नहीं लगा सकते? यों कह कर राजा ने उनको अपने राज्य से चले जाने की आज्ञा दी।
(१०) तए णं ते सुवण्णगारा कुंभेणं रण्णा णिव्विसया आणत्ता समाणा जेणेव साई २ गिहाइं तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सभंडमत्तोवगरणमायाओ मिहिलाए रायहाणीए मज्झंमज्झेणं णिक्खमंति २ त्ता विदेहस्स जणवयस्स मज्झमज्झेणं जेणेव कासी जणवए जेणेव वाणारसी णयरी तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अग्गुजाणंसि सगडीसागडं मोएंति २ त्ता महत्थं जाव पाहुडं गेण्हंति २ त्ता वाणारसीए णयरीए मज्झंमज्झेणं जेणेव संखे कासीराया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयल जाव वद्धावेंति २ त्ता (पाहुडं पुरओ ठावेंति २ त्ता संखरायं) एवं वयासी -
भावार्थ - तब कुंभ राजा द्वारा निर्वासन की आज्ञा दिए जाने पर वे स्वर्णकार अपनेअपने घर आए। अपना सामान-बर्तन, उपकरण औजार आदि के साथ राजधानी मिथिला के बीचोबीच से निकले। आगे उस जनपद के बीच से होते हुए काशी जनपद में पहुंचे और वाराणसी नगरी में आए। वहाँ के प्रमुख उद्यान में उन्होंने अपने गाड़ी-गाड़े खोले। महत्त्वपूर्ण यावत् बहुमूल्य भेंट लेकर वाराणसी नगरी के बीच से होते हुए काशीराज के पास आए। हाथ जोड़ कर, मस्तक नवा कर यावत् उन्हें वर्धापित किया। भेंट उनके आगे रखी और राजा शंख को यों निवेदित किया।
(89) अम्हे णं सामी! मिहिलाओ णयरीओ कुंभएणं रण्णा णिव्विसया आणत्ता समाणा इहं हव्वमागया, तं इच्छामो णं सामी! तुन्भं बाहुच्छाया परिग्गहिया
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