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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
अग्रभाग म्यान रहित तीक्ष्ण धार युक्त दो तलवारों के समान थे जिनसे लार टपक रही थी। वे रस लोलुप थे, मुंह से बाहर निकले हुए थे। उस पिशाच का मुख फटा हुआ था, जिससे उसका लाल तालु दृष्टिगोचर होता था। वह तालु ऐसा लगता था कि मानो हिंगुल से व्याप्त अंजनगिरी की गुफा हो। उसके गाल सिकुड़े हुए थे। उसकी नाक छोटी, चपटी और टेढ़ी थी। क्रोध के कारण उसके फड़कते हुए नथुनों से निकलती हुई श्वास की हवा बड़ी कर्कश एवं असह्य थी। उसका मुख ऐसा भयानक था मानो प्राणियों के घात के लिए रचित हो। उसके दोनों कान चंचल और लंबे थे। इन पर लम्बे-लम्बे विकृत बाल उगे थे। उसकी आँखें पीली और चमकीली थीं। उसके ललाट पर भृकुटि चढ़ी, जो बिजली सी दृष्टिगत होती थी। उसके पास जो ध्वजा थी, उस पर मनुष्यों के मुण्डों की माला लिपटी हुई थी। उसने तरह-तरह के गोनस जातीय सांपों का कमरबंद लगा रखा था। उसने इधर-उधर सरकते, फुफकारते काले सो बिच्छुओं, गोहों, चूहों, नेवलों और गिरगिटों की विचित्र प्रकार की माला धारण कर रखी थी। उसने भयावह फण युक्त सॉं के लम्बे लटकते हुए कुंडल कानों में धारण कर रखे थे। अपने दोनों कंधों पर उसने बिलाव और गीदड़ बिठा रखे थे। उसने मस्तक पर घू-घू घ्वनि करते घुग्घू या उल्लूओं को मुकुट के रूप में धारण कर रखा था। वह घण्टा ध्वनि के कारण बड़ा भयंकर प्रतीत होता था। कायरजनों के हृदय को चीर डालने वाला था। वह विकराल रूप में अट्टहास कर रहा था। उसकी देह चर्बी, रक्त, मवाद मल और मांस से पुती हुई थी। प्राणियों के लिए वह त्रासोत्पादक था। उसका वक्ष स्थल विशाल था। उसने उत्तम व्याघ्र चमड़ा पहन रखा था, जिसमें व्याघ्र के नख, मुख, आँखें और कान स्पष्ट दृष्टिगोचर होते थे। उसके दोनों ऊपर उठे हाथों पर हाथी का रक्तरंजित चर्म फैला हुआ था। वह पिशाच अपनी अत्यंत कर्कश, करुणाशून्य, अनिष्ट, उत्तापजनक, सहज ही अशुभ, अप्रिय वाणी से तर्जित करने लगा। नौका स्थितजनों ने इस प्रकार का भीषण पिशाच देखा।
विवेचन - इस सूत्र में वर्णित पिशाच का स्वरूप काव्य शास्त्र की दृष्टि से वीभत्स, अद्भुत और भयानक रस का साक्षात् स्वरूप लिए हुए है। काव्य शास्त्र में वर्णित नौ रसों के अंतर्गत ये तीन रस क्रमशः जुगुप्सा, आश्चर्य और भयरूप स्थायी भावों का विभाव अनुभाव आदि द्वारा परिपोषित, विकसित रूप है। सहृदयों के अन्तःकरण में स्थायी भाव वासना के रूप में सदैव विद्यमान रहते हैं। जब वे काव्यात्मक संदर्भ में, गद्य या पद्यमयी रचना में अपने परिपोषक भावों से समन्वित होते हैं, तब काव्य मर्मज्ञ सहृदयजनों के मन में परम आनंद की
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