________________
३७६
ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
किं पियधम्मे णो पियधम्मे, दढधम्मे णो दढधम्मे, सीलव्वयगुणे किं चालेइ जाव परिच्चयइ णो परिच्चयइ - त्ति कट्ट एवं संपेहेमि २ त्ता ओहिं पउंजामि २ ना देवाणुप्पियं ओहिणा आभोएमि २ त्ता उत्तरपुरच्छिमं २ उत्तरवेउव्वियं० ताए उक्किट्ठाए जाव जेणेव लवण समुद्दे जेणेव देवाणुप्पिया तेणेव उवागच्छामि. २ त्ता देवाणुप्पियाणं उवसग्गं करेमि णो चेव णं देवाणुप्पिया भीया वा० तं जं णं सक्के देविंदे देवराया एवं वयइ सच्चे णं एसमढे तं दिटे णं देवाणुप्पियाणं इड्डी जाव परक्कमे लद्धे पत्ते अभिसमण्णागए। तं खामेमि णं देवाणुप्पिया! खमंतु मरहंतु णं देवाणुप्पिया! णाइभुजो २ एवं करणयाए - त्तिकट्ट पंजलिउडे पायवडिए एयमढें विणएणं भुजो २ खामेइ २ त्ता अरहण्णगस्स य दुवे कुंडलजुयले दलयइ २ त्ता जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए।
शब्दार्थ - जीवियफले - जीवन की सफलता, पडिवत्ती - प्रतिपत्ति-सफलता सोहम्मवडिंसए - सौधर्मावतंसक नामक विमान में, संपेहेमि - संप्रेक्षण करता हूँ, ओहिं - अवधिज्ञान को, पउंजामि - प्रयुक्त करता हूँ, आभोएमि - जानता हूँ, खमंतु मरहंतु - क्षमा करने में समर्थ ।
भावार्थ - अर्हनक! तुम धन्य हो। देवानुप्रिय! तुमने अपने जीवन को सफल कर लिया क्योंकि तुम्हें निर्ग्रन्थ प्रवचन में ऐसी दृढ़ श्रद्धा प्राप्त है। देवानुप्रिय! देवराज शक्र ने सौधर्मकल्प नामक विमान में, सुधर्मा सभा में, बहुत से देवों के बीच, बड़ी ही दृढ़ता के साथ ऐसा कहा कि इस जम्बूद्वीप के अंतर्गत, चम्पानगरी में, अर्हन्नक नामक श्रमणोपासक है, जो जीव-अजीव
आदि तत्त्वों का वेत्ता है। उसे कोई भी देव या दानव निर्ग्रन्थ प्रवचन से विचलित यावत् विपरिणत नहीं कर सकता।
तब हे देवानुप्रिय! देवेन्द्र शक्र की इस बात पर मुझे विश्वास नहीं हुआ। मैंने मन में यह सोचा कि मैं अर्हनक के पास जाऊँ, अपने को प्रकट करूँ और यह जानूं कि क्या अर्हनक धर्मप्रिय है या नहीं है? क्या धर्म में उसकी दृढ़ता है अथवा नहीं? क्या वह शीलव्रत, गुणव्रत से विचलित किया जा सकता है यावत् धर्माराधना से हटाया जा सकता है अथवा वैसा नहीं किया जा सकता? यों संप्रेक्षण चिंतन कर मैंने अवधिज्ञान का प्रयोग किया। तुम्हारे विषय में जानकारी प्राप्त की, तदनुसार उत्तरपूर्व दिशा भाग में वैक्रिय समुद्रघात किया। उत्कृष्ट देवगति
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org