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मल्ली नामक आठवां अध्ययन - कोसल नरेश प्रतिबुद्धि
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अनुभूति होती है। काव्य की ही यह विशेषता है कि भय, जुगुप्सा आदि भाव, जो भीति या घृणा उत्पन्न करते हैं, आनंदप्रद बन जाते हैं। यहां वर्णित पिशाच के रूप की भयावहता, आश्चर्यकारिता और घृणास्पदता रस रूप में परिणत होकर पाठकों और श्रोताओं के लिए “रस्यतेति रसः" के अनुसार आनंदवाहिता प्राप्त कर लेती है। यह प्रसंग एक उत्तम गद्यकाव्य का उदाहरण है। जब पाठक इसका अध्ययन करते हैं तो पिशाच की प्रतिकृति प्रत्यक्ष रूप में उपस्थित सी हो जाती है किन्तु न उससे भय लगता है, न घृणा होती है औ न आश्चर्य ही वरन् सहृदय, हृदयवेध आनंद का अनुभव होता है, जिसे काव्यशास्त्रियों ने ब्रह्मानंद सहोदर कहा है। इस प्रसंग में उपर्युक्त तीनों रसों के अनुरूप अनुप्रास, उपमादि शब्दालंकार एवं अर्थालंकारों का बड़ा ही चामत्कारिक प्रयोग हुआ है, जो प्राकृत भाषा की शब्द संपदा के वैशिष्टय का द्योतक है। . उल्लिखित पाठ में तालपिशाच का दिल दहलाने वाला चित्र अंकित किया गया है। पाठ के प्रारम्भ में 'अरहण्णगवजा संजत्ताणावावाणियगा' पाठ आया है। इसका आशय यह नहीं है कि अर्हनक के सिवाय अन्य वणिकों ने ही उस पिशाच को देखा। वस्तुतः अर्हन्नक ने भी उसे देखा था, जैसा कि आगे के पाठों से स्पष्ट प्रतीत होता है। किन्तु 'अर्हन्नक के सिवाय' इस वाक्यांश का सम्बन्ध सूत्र संख्या ६३ वें के साथ है। अर्थात् अर्हन्नक के सिवाय अन्य वणिकों ने उस भीषणतर संकट के उपस्थित होने पर क्या किया, यह बतलाने के लिए 'अरहण्णगवजा' पद का प्रयोग किया गया है। उस संकट के अवसर पर अर्हन्नक ने क्या किया, यह सूत्र संख्या ६४ वें में प्रदर्शित किया गया है।
‘अन्य वर्णिकों से अर्हन्नक की भिन्नता दिखलाना सूत्रकार का अभीष्ट है। भिन्नता का कारण है - अर्हन्नक का श्रमणोपासक होना, जैसा कि सूत्र ५३ में प्रकट किया गया है। सच्चे श्रावक में धार्मिक दृढ़ता किस सीमा तक होती है, यह घटना उसका स्पष्ट निदर्शन कराती है।
(६३) ...' तं तालपिसायरूवं एजमाणं पासंति २ ता भीया संजायभया अण्णमण्णस्स कायं समतुरंगेमाणा २ बहूणं इंदाण य खंदाण य रुद्दसिववेसमणणागाणं भूयाण य जक्खाण य अज्जकोट्टकिरियाण य बहूणि उवाइय सयाणि ओवाइयमाणा २ चिट्ठति।
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