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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
भावार्थ - तदनंतर महाबल आदि सातों मुनि लघुसिंह निष्क्रीड़ित नामक तप स्वीकार कर साधनाशील रहे।
उपर्युक्त तप का विस्तृत वर्णन अन्तकृतदशा सूत्र के आठवें वर्ग के चौथे अध्ययन (कृष्णा सती) में बतलाया गया है। विशेष जिज्ञासुओं को वहाँ पर देखना चाहिए।
विवेचन - जैन धर्म में तप का अत्यधिक महत्व है। दशवैकालिक सूत्र के प्रारंभ में अहिंसा, संयम एवं तप धर्म को उत्कृष्ट मंगल बताया गया है। कर्मों का निर्जरण तप द्वारा बड़ी तीव्रता से होता है। वहाँ तप केवल बाह्य क्लेश रूप नहीं है। तप का आदि रूप उपवास शब्द ही इस तथ्य का द्योतक है कि तप आत्म-स्वरूप के साक्षात्कार की ओर उन्मुख होना है। 'उप' उपसर्ग सामीप्य का द्योतक है। ‘वास' का अर्थ निवास होता है। 'उप-आत्मनः समीपे वासः इति उपवासः'। कोई व्यक्ति अन्न-जल आदि का त्याग तो कर दे किन्तु मन में उन्हीं का चिंतन . करता रहे तो वह शुद्ध तप नहीं होता। जैन धर्म में तप पर बड़ी ही सूक्ष्म और वैज्ञानिक दृष्टि से चिंतन हुआ है, जो उसके भिन्न-भिन्न प्रकारों से स्पष्ट है। इनमें लघु सिंह निष्क्रीडित, महासिंह निष्क्रीडित, रत्नावली, कनकावली, एकावली आदि मुख्य हैं। यहाँ महाबल अनगार द्वारा लघुसिंह निष्क्रीड़ित तप करने का उल्लेख हुआ है। सिंह निष्क्रीडित का यह अभिप्राय है कि जिस प्रकार सिंह अपनी स्वाभाविक गति से चलता है तो वह बार-बार पीछे देखता रहता है। यों पीछे देखता हुआ वह आगे बढ़ता है। उसका पीछे देखना सावधानी का द्योतक है। यद्यपि वह वनराज है, परम पराक्रमी है, फिर भी वह आत्म-रक्षण हेतु अत्यंत जागरूक रहता है। सिंह निष्क्रीड़ित तप का यही आशय है कि तप में, उच्च श्रेणी में बढ़ता हुआ साधक पीछे भी देखता जाता है। अर्थात् वह आगे के तप के बढ़ते हुए दिवसों के साथ-साथ यथा क्रम पिछले कम दिवसों के उपवासों को पुनरावर्तित करता रहता है। जैसा इस सूत्र में निर्देशित हुआ है। ऐसा करने से उस द्वारा किया जाता तप एक ऐसी परिपक्वता पा लेता है कि साधक उसमें सर्वथा अविचल रहता हुआ अपना लक्ष्य पूरा करता है। __महासिंह निष्क्रीड़ित तप इससे और विशिष्ट है। औपपातिक सूत्र में इन तपों का विस्तार से वर्णन हुआ है, जो द्रष्टव्य है।
(१६) एवं खलु एसा खुड्डागसीहणिक्कीलियस्स तवो कम्मस्स पढमा परिवाडी छहिं मासेहिं सत्तहि य अहोरत्तेहि य अहासुत्ता जाव आराहिया भवइ।
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