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संघाट नामक दूसरा अध्ययन - विजय चोर की दुर्गति
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शब्दार्थ - कयपडिकइयाइ - कृत-प्रतिकृत-किए हुए उपकार का बदला, लोगजत्ताइ - लोक यात्रा-सांसारिक व्यवहार, णायए - ज्ञातक-पूर्वापर संबंधी जन, नायक-स्वामी, न्यायद-न्याय देने वाला, घाडिए - बाल मित्र, सुहित - सुहृद-प्रिय मित्र।
. भावार्थ - उसने भद्रा से कहा-'देवानुप्रिये! मैंने अशन-पान आदि का संविभाग विजय चोर को धर्म, तप, प्रत्युपकार एवं लोक यात्रा समझ कर नहीं दिया। न उसको नायक, बालमित्र सहायक या सुहृद् जानकर ही दिया। केवल शारीरिक शंका-निवृत्ति में सहयोगी मानकर ही उसे दिया। सार्थवाह द्वारा यों कहे जाने पर भद्रा के चित्त में हर्ष, परितोष और आनंद हुआ। अपने आसन से उठी। पति से गले मिली तथा कुशल क्षेम पूछा। तत्पश्चात् उसने स्नान, नित्यनैमित्तिक शुभोपचार आदि संपन्न किए। पुनश्च, पूर्ववत् अपने विपुल भोगोपभोगमय जीवन में प्रवृत्त रहने लगी।
. विजय चोर की दुर्गति
(४८) - तए णं से विजय तक्करे चारगसालाए तेहिं बंधेहिं वहेहिं कसप्पहारेहि य जाव तण्हाए य छुहाए य परब्भवमाणे कालमासे कालं किच्चा णरएसु णेरइयताए उववण्णे। से णं तत्थ णेरइए जाए काले कालोभासे जाव वेयणं पच्चणुब्भवमाणे विहरइ। से णं तओ उव्वट्टित्ता अणादीयं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंत संसारकंतारं अणुपरियहिस्सइ।
शब्दार्थ - बंध - रस्सी आदि से बांधना, वह - वध-लट्ठी आदि से मारना. णरएसु - नरक में, णेरइयताए - नारक के रूप में, काले - काले वर्ण से युक्त, कालोभासे - अतिशय कालिमा युक्त, वेयणं - वेदना, पीड़ा, पच्चणुब्भवमाणे - अनुभव करता हुआ, उव्वट्टित्ता - निकलकर, अणादीयं - अनादिक-आदि रहित, अणवदग्गं - अनवदग्र-अनन्त. दीहमद्धं - लम्बा मार्ग, चाउरंत संसारकंतारं - चतुर्गतिमय संसार रूप महा अरण्य में, अणुपरियटिस्सइ- अनुपर्यटन करेगा।
भावार्थ - वह विजय चोर कारागार में बंधन, बध, चाबुक आदि के प्रहार, भूख-प्यास
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